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३१. समाधि
- मृत्यु
• कायस्स विओवाए, एस संगाम सीसे वियाहिए । सेहु पारंग मुणी, अवि हम्ममाणे फलगावयट्ठि, कालोवणीते कंखेज्ज कालं, जाव सरीरभेउ । (६ / ११३)
प्रयोग और परिणाम २२१
मृत्यु के समय होने वाला शरीर-पात संग्रामशीर्ष (अग्रिम मोर्चा ) कहलाता है । जो पुरुष उसमें पराजित नहीं होता वही पारगामी होता है । वह परीषह से आहत होने पर जैसे खिन्न नहीं होता, वैसे बाह्य और आंतरिक तप के द्वारा फलक की भांति शरीर और कषाय- दोनों ओर से कृश बना हुआ खिन्न न बने । मृत्यु के निकट आने पर जब तक शरीर का वियोग न हो, तब तक काल की प्रतीक्षा करे, मृत्यु की आशंसा न करे ।
मृत्यु सचमुच संग्राम है । संग्राम में पराजित होने वाला वैभव से विपन्न और विजयी होने वाला वैभव से संपन्न होता है। वैसे ही मृत्यु-काल में आशंसा और भय से पराजित होने वाला साधना से च्युत हो जाता है तथा अनासक्त और अभय रहने वाला साधना के शिखर पर पहुंच जाता है । इसीलिए आगमकार का निर्देश है कि मृत्यु के उपस्थित होने पर मूढ़ता उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। मूढ़ता से बचने की तैयारी जीवन के अन्तिम क्षण में नहीं होती । वह पहले से करनी होती है । उसकी मुख्य प्रवृत्ति है - शरीर और कषाय का कृशीकरण |
३२. अध्यात्म-फलित व्यवहार
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अण्णा णं पासए परिहरेज्जा । ( २ / ११८ )
तत्त्वदर्शी मनुष्य वस्तुओं का परिभोग अन्यथा करे - जैसे तत्त्व नहीं जानने वाला मनुष्य करता है, वैसे न करे ।
वस्तु का अपरिभोग और परिभोग - ये दो अवस्थाएं हैं । वस्तु का अपरिभोग एक निश्चित सीमा में ही हो सकता है। जहां जीवन है, शरीर है, वहां वस्तु का उपभोग - परिभोग करना ही होता है । एक तत्त्वदर्शी मनुष्य उसका उपभोग-परिभोग करता है और तत्त्व को नहीं जानने वाला भी । किंतु इन दोनों के उद्देश्य, भावना और विधि में अन्तर होता है
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