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प्रयोग और परिणाम - २१३ • णारतिं सहते वीरे, वीरे णो सहते रतिं ।
जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जति ।। (२/१६०) साधक संयम-साधना में उत्पन्न अरति को सहन नहीं करता-तत्काल ध्यान के द्वारा उसे मन से निकाल देता है । असंयम में उत्पन्न रति को सहन नहीं करता-तत्काल ध्यान के द्वारा उसका रेचन कर देता है, क्योंकि वह विमनस्क नहीं होता, मध्यस्थ रहता है, इसलिए वह आसक्त नहीं होता ।
अरति को सहन न करना यह संकल्प-शक्ति (Will-Power) के विकास का सूत्र है । जिसके प्रति मनुष्य का आकर्षण नहीं होता, उसके प्रति प्रयलपूर्वक ध्यान करने से मानसिक धारा को प्रवाहित करने से संकल्पशक्ति विकसित होती है । इन्द्रियों का आकर्षण विषयों के प्रति होता है । विषय-विरति के प्रति उनका आकर्षण नहीं होता। इसलिए कभी-कभी साधक के मन में विषय-विरति के प्रति अरति उत्पन्न हो जाती है । उस अरित को सहने वाले साधक का संकल्प शिथिल हो जाता है । जो साधक अरति को सहन नहीं करता, विषय-विरति के प्रति अपने मन की धारा को प्रवाहित करता है, वह अपनी संकल्प-शक्ति का विकास कर संयम को सिद्ध कर लेता
भगवान् महावीर की साधना अप्रमाद (जागरूकता) और पराक्रम की साधना है । साधक को सतत अप्रमत्त और पराक्रमी रहना आवश्यक है । साधना-काल में यदि किसी क्षण प्रमाद आ जाता है-अरति-रति का भाव उत्पन्न हो जाता है, तो साधक उसी क्षण ध्यान के द्वारा उसका विरेचन कर देता है । इससे वह संस्कार नहीं बनता, ग्रंथिपात नहीं होता । ___अरति-रति का रेचन न किया जाए, तो उससे विषयानुबन्धी चित्त का निर्माण हो जाता है । फिर विषय की आसक्ति छूट नहीं सकती । २६. अहिंसा
• वेरं वड्ढेति अप्पणो । (२/१३५) पुरुष माया और लोभ का आचरण कर वैर बढ़ाता है ।
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