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२१२ जैन योग
पुरुष इन्द्रियों का संयम करे । उनका उच्छृंखल व्यवहार न करे ।
जस्सिमे सद्दा य रूवा य गंधा य रसा फासा य अभिसमन्नागया भवंति से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं । ( ३/४ )
जो पुरुष शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श को भली-भांति जान लेता है - उनमें राग-द्वेष नहीं करता वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है ।
शब्द, रूप, रस, गंध, और स्पर्श की आसक्ति आत्मा की उपलब्धि में बाधक बनती है । इनमें आसक्त मनुष्य अनात्मवान् और अनासक्त मनुष्य आत्मवान् कहलाता है । जिसे आत्मा उपलब्ध होता है । उसे ज्ञान, शास्त्र, धर्म और आधार - सब कुछ उपलब्ध हो जाता है । जो आत्मा को जान लेता है, वह ज्ञान, शास्त्र, धर्म और आचार - सब कुछ जान लेता है ।
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• आगतिं गतिं परिण्णाय, दोहिं वि अंतेहिं अदिस्समाणे । सेण छिज्जइ ण भिज्जइ ण डज्झइ ण हम्मइ कंचणं सव्वलो ॥ (३/५८)
आंगति और गति (संसार - भ्रमण ) को जानकर जो राग-द्वेष- इन दोनों अन्तों से दूर रहता है, वह लोक के किसी भी कोने से छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं जाता और मारा नहीं जाता ।
• पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिगिज्झ, एवं दुक्खा पोक्खसि । (३/२६४) पुरुष ! आत्मा का ही निग्रह कर । इस प्रकार तू दुःख से मुक्त हो
जाएगा ।
आत्मा शब्द का प्रयोग चैतन्य - पिण्ड, मन और शरीर के अर्थ में होता है | अभिनिग्रह का अर्थ है - समीप जाकर पकड़ना । जो व्यक्ति मन के समीप जाकर उसे पकड़ लेता है, उसे जान लेता है, वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । निकटता से जान लेना ही वास्तव में पकड़ना है । नियंत्रण करने से प्रतिक्रिया पैदा होती है । उनसे निग्रह नहीं होता । धर्म के क्षेत्र में यथार्थ को जान लेना ही निग्रह है ।
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