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________________ १९६ जैन योग ८. अशरण अनुप्रेक्षा नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा । तुमं पितेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा ।। (२/२८) हे पुरुष ! वे स्वजन तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं है । तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो । ९. एकत्व अनुप्रेक्षा अइअच्च सव्वतो संगं ण महं अत्थि इति एगोहमंसि । ( ६ / ३८) पुरुष सब प्रकार के संग का त्याग कर यह भावना करे - मेरा कोई नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं । १०. संसार अनुप्रेक्षा मोहेण गब्भं मरणाति अति । ( ५ / ७) • प्राणी मोह के कारण जन्म-मरण को प्राप्त होता है । एत्थ मोहे पुणो पुणो । (५/८) इस जन्म-मरण की श्रृंखला में बार-बार मोह उत्पन्न होता है । संसयं परिजाणतो, संसारे परिण्णाते भवति । संसयं अपरिजाणतो, संसारे अपरिण्णाते भवति ॥ ( ५ / ९) जो संशय को जानता है, वह संसार को जान लेता है- ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है । जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को नहीं जान पाता । संशय दर्शन का मूल है । जिसके मन में संशय नहीं होता - जिज्ञासा नहीं होती, वह सत्य को प्राप्त नहीं कर सकता । भगवान महावीर के ज्येष्ठ शिष्य गौतम के मन में जब-जब संशय होता, तब वे भगवान के पास जाकर उसका समाधान लेते । 'संशयात्मा विनश्यति'- संशयालु नष्ट होता है । इस पद में संशय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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