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१७४ 0 जैन योग
विश्लेषण नहीं कर सकता । जो साधक देहाभिमान से मुक्त होकर आत्मा
का साक्षात्कार कर सकता है, उनके अनुभव ही उस स्थिति में सहायक बनते हैं | आत्मानुभूति का अभ्यास निम्न निर्दिष्ट विधि से किया जा सकता है ।
आप सुखासन में बैठ जाइए । दोनों नथुनों के नीचे ऊपर के ओंठ पर मन को केन्द्रित कीजिए । वहां श्वास के भीतर जाने और बाहर आने को मानस-चक्षु से देखिए । दस मिनट तक इस श्वासक्रिया को चलने दीजिए । उसके पश्चात् अनुभव करिए कि वहां चैतन्य का स्पंदन हो रहा है । इस अनुभव में जितना लम्बा समय लगा सकें, उतना ही अनुभव स्पष्ट होता जाएगा ।
जब चैतन्य के स्पंदन का स्पष्ट अनुभव होने लगे, तब धारणा को मोड़ देना आवश्यक होगा | आप जिस चैतन्य के स्पंदन का अनुभव करते हैं, वह शुद्ध चैतन्य नहीं है । वह मानस स्तरीय है । आप गहराई में जाने की धारणा कीजिए और शुद्ध चैतन्य के साक्षात्कार का अनुभव कीजिए | इस भूमिका में इन्द्रिय और मन से अतीत चैतन्य का अनुभव हो सकेगा । साधना का समय लम्बा होना आवश्यक है । मानस स्तर पर आनन्द की उपलब्धि होती है | वहां रुकने का मन भी होता है | पर चैतन्य की शुद्ध भूमिका पर पहुंचने के लिए वहां रुकना नहीं चाहिए । इस चैतन्य की अनुभूति के अभ्यास से इन्द्रियातीत स्थिति प्राप्त हो सकती है । शब्द और स्पर्श होने पर आप उनके ग्रहण से ऊपर उठ सकते हैं। ___ उक्त पद्धति के अनुसार शरीर के अन्य अवयवों में भी चैतन्याभूति का अभ्यास कीजिए । समग्र शरीर में चैतन्यानुभूति का उदय होने पर आत्मावलम्बी ध्यान सिद्ध हो जाता है । ___ आत्मानुभूति के ध्यान में कुंभक भी सहायक बनता है। आप किसी भी स्थिति में, बैठे या खड़े, केवल कुंभक कर सकते हैं। आप मानसिक संकल्प कीजिए और उसी के साथ प्राण को स्थिर कर डालिए । कुछ समय तक उसी स्थिति में रहिए । अभ्यास बढ़ाते-बढ़ाते दो-तीन मिनट के कुंभक का अभ्यास कर लीजिए । केवल कुंभक रेचक और पूरक के बिना किया जाता है । प्राण सहजभाव से बाहर निकला हुआ हो या भीतर गया हुआ हो-दोनों स्थितियों में केवल कुंभक किया जा सकता है । कुंभक प्राणयाम का ही एक अंग है ।
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