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अहं-विसर्जन : अभ्यास-क्रम
१. भेदज्ञान का दृढ़ अभ्यास–'जीवोन्यः पुद्गलश्चान्यः' जीव अन्य है और शरीर अन्य है-यह भेदज्ञान का मन्त्र है । तन्मयता के साथ इसकी पुनरावृत्ति करने से मोह का संस्कार क्षीण होता है । देहासक्ति शिथिल होती
आप साधना के प्रारंभ में इस भेदज्ञान मंत्र का ब्रह्ममुहूर्त, सायंकाल और सोने के समय आधे-आधे घंटे तक जप करें । इसके अतिरिक्त जब भी समय हो और जब स्मृति में आए तभी इसका जप करें। इस प्रकार छह माह तक इसका जप करने से सत्य उपलब्ध होता है । उसकी उपलब्धि होने पर अहं स्वयं विसर्जित हो जाता है ।
२. आत्मानुभूति का ध्यान-योग-अहं का प्रत्यय देशभिमान के कारण चेतन के मन में उठता है । अचेतन में कोई 'अहं' का प्रत्यय नहीं होता | इसका कारण यह है कि अचेतन के पीछे कोई प्रेरणा नहीं है । देह और मन के पीछे एक प्रेरणा है | उसके आवरण में छिपी हुई आत्मा हर समय अपने को व्यक्त करने का प्रयत्न करती है, किंतु देह और मन उसके प्रयत्न को पूर्णरूपेण सफल नहीं होने देते । उस स्थिति में 'अहं' देह और मन के माध्यम से व्यक्त होता है । फलतः 'अहं' देह और मन से प्रतिबद्ध हो जाता है । जिस मनुष्य में देहाभिमान विद्यमान है, वह आत्मा के स्वरूप का पदार्थ
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