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तेजोलेश्या (कुंडलिनी)
तैजस शरीर : अनुग्रह - निग्रह का साधन
हम शरीरधारी हैं | शरीर दो प्रकार के हैं - स्थूल और सूक्ष्म | अस्थिचर्ममय शरीर स्थूल है । तैजस शरीर सूक्ष्म और कर्म शरीर अति सूक्ष्म है । हमारे पाचन, सक्रियता और तेजस्विता का मूल तैजस शरीर है। वह पूरे स्थूल शरीर में व्याप्त रहता है तथा दीप्ति और तेजस्विता उत्पन्न करता है । विद्युत्, प्रकाश और ताप ये तीनों शक्तियां उसमें विद्यमान हैं। शरीर में दो प्रकार की विद्युत् है - घार्षणिक और धारावाही या मानसिक । घार्षणिक विद्युत् का उत्पादन शरीर करता है और धारावाही विद्युत् का उत्पादन मस्तिष्क करता है । मस्तिष्कीय विद्युतधारा स्नायु-मंडल में संचरित रहती है। वह ज्ञान-तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क तक सूचना पहुंचाती है और उससे मिले निर्देशों का शारीरिक अवयवों द्वारा क्रियान्वयन कराती है । इसका मूल हेतु तैजस शरीर है । यह शरीर प्राणिमात्र के साथ निरंतर रहता है। एक प्राणी मृत्यु के उपरान्त दूसरे जन्म में जाता है । उस समय अन्तराल गति में भी तैजस शरीर उसके साथ रहता है । कर्म-शरीर सब शरीरों का मूल है। उसके बाद दूसरा स्थान तैजस शरीर का है। यह सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित होता है, इसलिए चर्म चक्षु से दृश्य नहीं होता । यह स्वाभाविक भी होता है और तपस्या द्वारा उपलब्ध भी होता है । यह तप द्वारा उपलब्ध तैजस शरीर ही तेजोलेश्या है । इसे तेजोलब्धि
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