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१२० - जैन योग प्रक्रिया, प्राण की चिकित्सा, या मन की चिकित्सा, या आत्मा की चिकित्सा । क्योंकि प्राण और मन दोनों ही साथ-साथ चलते हैं । जहां प्राण जाता है, वहां मन जाता है और जहां मन जाता है वहां प्राण जाता है | हम अन्तःप्रेक्षा की, अर्तमन की बात करते हैं । अध्यात्म का अर्थ ही है भीतर में देखना, भीतर को जानना, भीतर की यात्रा करना । भीतर देखने का या भीतर यात्रा करने का अर्थ ही है-प्राण को भीतर ले जाना । प्राण को भीतर ले जाने का अर्थ है कि जो ऊर्जा बाहर की ओर प्रवाहित हो रही थी, उसे मोड़कर भीतर ले जाना; हमारे शरीर की विद्युत् को समूचे शरीर में ले जाना । जहां-जहां मन गया वहां-वहां प्राण गया और जहां-जहां प्राण गया वहां-वहां ऊर्जा गई । जहां ऊर्जा का प्रवाह होता है वहां कोई भी दोष टिक नहीं सकता, रोग रह नहीं सकता । प्राण या ऊर्जा की कमी के कारण ही रोग उत्पन्न होते हैं, बीमारियां होती हैं । उनका संतुलन होते ही दोष नष्ट हो जाते हैं । यही मनःचिकित्सा का आधार है । मन के भीतर ले जाने का प्रयोजन ही है प्राण
और ऊर्जा को भीतर प्रवाहित करना । भीतर जाने का अर्थ ही है-ऊर्जा का विकास, ऊर्जा का सूमचे शरीर में इतना अवगाहन कि जहां कमी हो वह पूरी हो सके । ___कायोत्सर्ग शिथिलीकरण की क्रिया है । इसका इतना ही अर्थ नहीं है कि शरीर को शिथिल कर देना, शांत कर देना । बल्कि हम ऐसी तैयारी कर लें जिससे कि ऊर्जा का प्रवाह अजस्र हो जाए । इतना प्रवाह हो जाए. कि कहीं कोई अवरोध न रहे, कोई तनाव न रहे । तनाव के कारण ही तो अवरोध होता है, गतिरोध होता है । शिथिल होने से अवरोध की गांठ खुल जाए और सारा प्रवाह अबाध गति से चलता रहे । वर्तमान में प्रचलित 'फीलिंग' की जो चिकित्सा पद्धति है वह सारी-की-सारी मानसिक चिकित्सा की पद्धति है, जिसका पश्चिम में बहुत विकास हुआ है । निवृत्ति : प्रवृत्ति
· गुप्तियां तीन -मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति । कायगुप्ति का अर्थ है-शरीर को निवृत्त करना और प्रवृत्त करना । प्रवृत्त करने में आसन, प्राणायाम, श्वास की क्रियाएं, बैठने की सारी मुद्राएं आ जाती हैं । शरीर
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