________________
११८ - जैन योग नहीं है । तर्क हमेशा ही व्यवधान होता है | जहां परोक्ष होता है, वहां तर्क होता है । प्रत्यक्ष में तर्क के लिए कोई अवकाश नहीं है । जहां दूरी है, सूक्ष्म है, जहां बीच में कोई माध्यम है वहां तर्क के लिए अवकाश हो सकता है। पर जहां कोई व्यवधान नहीं, दूरी नहीं, वहां कोई तर्क नहीं होता । जब हम अन्तर्यात्रा में ध्यान की स्थिति में होते हैं, हमारा भीतर में प्रवेश होता है, वहां हम चैतन्य के साथ सर्वथा एकीभूत हो जाते हैं । वहां चैतन्य के प्रति हमारी कोई दूरी नहीं होती । उस स्थिति में तर्क को कोई स्थान नहीं होता | केवल अनुभव, केवल साक्षात् और प्रत्यक्षीकरण । इस प्रत्यक्षीकरण की समूची प्रक्रिया में कोई तर्क नहीं होता । इसमें केवल अनुभव ही काम करता है । हम व्यक्ति-व्यक्ति के अनुभव को जागृत करें और उसे परोक्ष के मार्ग से हटाकर प्रत्यक्ष की अनुभूति में ले जाएं । जब तक दूसरा रहेगा तब तक तर्क के लिए अवकाश रहेगा । जब कर्ता अलग और कर्म अलग है तो दूरी है। एक व्यक्ति मैं हूं और एक मेरे लिए दूसरा है । जहां दूसरा है वहां तर्क और संदेह होगा, विवाद होगा, संघर्ष होगा । सब कुछ होगा । किंतु जहां 'मैं' और 'दूसरे' का कोई अन्तर नहीं रहता, जब मेरा स्वयं का अपना अनुभव ही मेरे लिए सब कुछ बन जाता है, वहां कोई तर्क नहीं, कोई संदेह नहीं, कोई विवाद नहीं, कुछ भी नहीं । जितना मैंने जाना, जितना मैंने अनुभव किया, वह मेरा अपना है, पराया कुछ भी नहीं है | जहां पराया नहीं है वहां कोई संघर्ष नहीं है, टकराहट नहीं है । उपदेश परोक्षद्रष्टा के लिए
अन्तर्यात्रा का सबसे पहला कार्य है कि व्यक्ति को अनुभव के मार्ग में प्रस्थित कर देना, उसे अनुभव करा देना । जब तक अनुभव की दिशा उद्घाटित नहीं होती तब तक कोई भी अध्यात्म की साधना नहीं चल सकती । साधना का पहला क्रम है-साधना के जिज्ञासु को, छोटा या बड़ा, कोई-नकोई अनुभव करा देना चाहिए जिससे प्रेरणा जागृत हो कि यह मार्ग मेरे लिए श्रेयस्कर है । यतिभोज ने लिखा है-आचार्य का कर्तव्य है कि वे शिष्य को कोई-न-कोई अनुभव करा दें, जिससे कि वह उस दिशा में गति कर सके । जो अनुभव की प्रक्रिया है, उससे जो गुजर जाता है, उसे फिर उपदेश की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org