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अप्रमाद, वीतराग और केवली
अप्रमाद
साधना का महत्त्वपूर्ण सूत्र है-जागरूकता । जागना बहुत महत्त्व की बात है । मनुष्य रात को सोता है और दिन में जागता है । सोने का भी एक समय है और जागने का भी एक समय है । पर अज्ञानी कभी नहीं जागता, वह सदा सोता है । ज्ञानी कभी नहीं सोता, वह सदा जागता है ।
यह सतत जागृति की अवस्था ही अप्रमाद है । चैतन्य की धारा अविच्छिन्न रहती है, उसमें राग-द्वेष की धारा नहीं मिलती तब अप्रमाद घटित होता है । इस स्थिति को बहुत सावधानी, दृढ़संकल्प और अध्यवसाय से बनाए रखना होता है । पूर्वार्जित कर्म का उदय, कषाय का दबाव और संज्ञा का प्रभाव-ये सब मिलकर चैतन्य के प्रति होने वाली सतत अनुभूति का क्रम तोड़ देते हैं । साधक फिर प्रमाद में आ जाता है । यह प्रमाद और अप्रमाद का क्रम लम्बी अवधि तक चलता रहता है ।
अप्रमाद अवस्था में हिंसा, असत्य आदि सभी दोष उपशान्त हो जाते हैं । जागरूकता के कारण आंतरिक बंधन शिथिल होने लग जाते हैं । यह समत्व और वीतरागता के मध्य का सेतु है । यह जैसे-जैसे स्थिरपद होता है, वैसे-वैसे समत्व सुस्थिर और वीतराग भाव विकसित होता है । वीतरागता
राग-द्वेष-युक्त क्षण अशुद्ध चैतन्य के अनुभव का क्षण है । राग-द्वेष
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