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१०६ - जैन योग व्याकुल हो जाता है । स्वामित्व छूटने से क्या अंतर पड़ा ? कोई भी अंतर नहीं पड़ा । वह संपत्ति तो वहीं पड़ी है वैसे ही वैसी है । केवल स्वामी बदला है। किंतु मन का वह धागा टूट गया । अब वह एकांत में या जंगल में जाकर रहने की सोचता है । देश को छोड़ देने की सोचता है या शरीर को छोड़ देने की बात सोचता है । यह सब इसलिए होता है कि व्यक्ति में तटस्थता नहीं है । जब व्यक्ति तटस्थ नहीं होता तब वह प्रत्येक परिस्थिति के साथ अपने आपको जोड़ देता है । वह मन को परिस्थिति से अलग नहीं रख पाता । जब समत्व की अवस्था जागती है तब तटस्थता भी जाग जाती है । जो व्यक्ति तटस्थ होता है वह लाभ-अलाभ जो भी घटित होता है उसे जान लेता है, उसे देख लेता है, पर उसमें लिप्त नहीं होता । अपने को उसके साथ नहीं जोड़ता । जान लेता है भोगता नहीं | जानने वाला न दुःखी होता है और न सुखी होता है । भोगने वाला दुःखी भी होता है और सुखी भी होता है । दोनों भार उसे उठाने पड़ते हैं । समत्व की दूसरी अवस्था है- तटस्थता | समत्व और संयम
समत्व की तीसरी अवस्था है-संयम । समत्व के साथ संयम अपने आप आता है । संयम की शक्ति जागती है तब व्यक्ति को यह नहीं लगता कि जो पदार्थ हैं वे सब उसके भोग के लिए हैं । ईश्वरवादी कहते हैं कि यदि हम इन पदार्थों का भोग नहीं करें तो ईश्वर ने इन्हें बनाया ही क्यों ? ऐसा लगता है कि ईश्वर ने सारी सृष्टि ही उसके लिए निर्मित की है । वे स्वयं इस तर्क पर नहीं टिकते कि यदि दूसरे उनका भोग करें तो उन्हें दुःख क्यों होता है ? वे यह क्यों नहीं सोचते कि ईश्वर ने उन्हें भी दूसरे के भोग के लिए बनाया है । उन्हें यह तर्क अच्छा नहीं लगता । मांसाहारी व्यक्ति से कहा जाए कि मांस खाना मानसिक दृष्टि से हितकर नहीं है । उससे चेतना के विकास में अवरोध उत्पन्न होता है । वे प्रतितर्क देते हैं कि मांस यदि खाने की वस्तु नहीं है तो ईश्वर ने इसे बनाया ही क्यों ? । ___किंतु जिस व्यक्ति में समत्व का विकास होता है उसमें सहज ही संयम का विकास हो जाता है। उसमें पदार्थ के प्रति मात्र उपयोगिता की बुद्धि रहती है, अनिवार्यता की बुद्धि रहती है। वह मानता है कि जीवन को टिकाए रखना
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