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१०० - जैन योग एक वैज्ञानिक कर रहा है । अध्यात्म-साधक इस ओर सुप्त है, उदासीन है। किंतु वैज्ञानिक जागरूक है, प्रयत्नशील है । यह अध्यात्म जगत् को बहुत बड़ी चुनौती है । वैज्ञानिक निःस्पृह भाव से, राग-द्वेष-रहित भाव से यह कार्य कर रहा है | सत्य की खोज कोई भी करे, वह सत्य तक पहुंचता है । हम क्यों नहीं मानें कि सत्य की खोज करने वाला, चाहे फिर वह वैज्ञानिक हो या साधक, उस अंश में अध्यात्म का साथी है जिस अंश में वह राग-द्वेष से शून्य होकर तत्त्व की खोज में लगा रहता है । इस मर्म को समझना चाहिए और साधकों को सत्य की खोज में लग जाना चाहिए ।
हम कैसे जान सकें कि व्यक्ति में धर्मध्यान का अवतरण हुआ है या नहीं ? कसौटी क्या है ? प्राचीन साधकों ने इसकी कसौटी भी बताई है । जब धर्मध्यान का अवतरण होता है तब व्यक्ति में अर्थ की खोज स्पष्ट हो जाती है । कोई समस्या सामने आई, तत्त्व सामने आया और ऐसा लगे कि उसका सामाधान लिखा हुआ-सा है तो समझना चाहिए कि व्यक्ति में धर्मध्यान घटित हो रहा है | वस्तु-सत्य की खोज करते-करते बहुत सारी बातें सहज ही प्रकट हो जाती हैं। एक बीज मिला और उसका सारा रहस्य प्राप्त हो जाएगा। एक वाक्य के आधार पर वह सारी बात समझ लेगा | पदानुसारिता, बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि-वे सब धर्मध्यान करने वाले व्यक्ति के लक्षण हैं । धर्मध्यान की अनुभूति आंतरिक अधिक है और बाहरी कम । यह आंतरिक कसौटी है। व्यक्ति स्वयं इसका अनुभव कर सकता है कि उसमें धर्मध्यान उतर रहा है । उसका शील बदल जाता है | उसका स्वभाव बदल जाता है । उसमें मैत्री की भावना जाग उठती है । उसमें अहिंसा प्रस्फुटित होने लगती है। उसमें सत्य की प्रबल निष्ठा का उदय होता है । अचौर्य का विकास होता है। उसमें वासनाओं की विरति होती है। उसमें मध्यस्थभाव प्रकट होता है । उसकी मूर्छा घटती है । ये सब धर्मध्यान की आंतरिक कसौटियां हैं ।
धर्मध्यान की बाहरी कसौटियां भी हैं। इससे शरीर की निश्चलता सधती है। बैठते ही शरीर निश्चल हो जाए तो समझना चाहिए कि धर्मध्यान उतर रहा है । जब हाथ, पैर, वाणी आदि का असंयम समाप्त हो जाता है तब मानना चाहिए कि धर्मध्यान का अवतरण हुआ है । ये दो बाहरी लक्षण हैं ।
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