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हरिभद्रसूरी का योग-विषयक वर्गीकरण पूर्ववर्ती जैन साहित्य में प्राप्त नहीं है । अन्य योग-ग्रंथों से भी उन्होंने उधार नहीं लिया है । जैन और योगपरम्परा के संयुक्त प्रभाव से उन्होंने अपने वर्गीकरण की योजना की । उनके अनुसार योग के पांच प्रकार हैं
१. अध्यात्म ४. समता २. भावना ५. वृत्तिसंक्षय' । ३. ध्यान
नवीं शती में आचार्य जिनसेन ने 'महापुराण' में यत्र-तत्र योग-साधना का निरूपण किया है । ग्याहवीं शताब्दी में आचार्य रामसेन ने 'तत्त्वानुशासन' को और आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' की रचना की । इन दोनों ग्रंथों में योग के और नये उन्मेष मिलते हैं । इस शताब्दी में जैन योग अष्टांगयोग, हठयोग और तंत्रशास्त्र से अधिक प्रभावित मिलता है | आगमिक युग में धर्म्यध्यान था, वह इस काल में पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-इन चार रूपों में वर्गीकृत हो गया । इस वर्गीकरण पर तंत्रशास्त्र का प्रभाव प्रतीत होता है । नवचक्रेश्वरतंत्र में पिंड, पद, रूप और रूपातीत को जानने वाले को गुरु कहा गया है
___ "पिंडं पदं तथा रूपं, रूपातीतं चतुष्टयम् ।
यो वा सम्यग् विजानाति, स गुरु परिकीर्तितः ।।" . गुरु-गीता में पिंड का अर्थ कुंडलिनी शक्ति, पद का अर्थ हंस, रूप का अर्थ बिंदु और रूपातीत का अर्थ निरंजन किया गया है
"पिंडं कुंडलिनी शक्तिः, पदं हंसः प्रकीर्तितः ।
रूपं बिंदुरीति ज्ञेयं, रूपातीतं निरंजनम् ।।" __ जैन आचार्यों ने पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-इस वर्गीकरण को स्वीकार किया किंतु उनके अर्थ अपनी परिभाषा के अनुसार किए । चैत्यवंदनभाष्य में पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत-ये तीन ही प्रकार मान्य किए गए
"भावेज्य अवत्थतियं पिंडत्थ पयत्थ रूवरहियतं ।
छउमत्थ केवलित्तं, सिद्धत्थं चेव तस्सत्थो ।" १. योगबिंदु ३१ : "अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः ।
मोक्षेण योजनाद् योगः, एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।।"
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