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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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अध्याय 2 रत्नाकरावतारिका और उसके कर्ता रत्नप्रभसूरि :
एक परिचय
1. जैन-दर्शन एवं न्याय के ग्रन्थों में रत्नाकरावतारिका का स्थान -
प्रथम अध्याय में हमने यह देखा था कि जैन-दर्शन एवं जैन-न्याय की विकास यात्रा आगमयुग से प्रारंभ होकर अनेकान्तस्थापन-युग तथा न्याय एवं तर्क-ग्रन्थों के रचना-युग से क्रमशः आगे बढ़ते हुए नव्यन्याय-युग में अपनी पूर्णता प्राप्त करती है। इस विकास यात्रा के कालक्रम में हम यह देखते हैं कि आगमयुग में बौद्धदर्शन की मान्यताओं के सम्बन्ध में विशेष रूप से क्षणिकवाद, संततिवाद और अनात्मवाद के निर्देश तो उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु उनकी विस्तृत चर्चा अर्द्धमागधी आगमों में उपलब्ध नहीं होती है। अनेकान्तस्थापन-युग में बौद्ध-दर्शन को और विशेष रूप से उसके क्षणिकवाद को एकान्त पक्ष बताकर उसकी समीक्षा की गई है। आचार्य हरिभद्र के काल तक भी बौद्ध-दर्शन की मान्यताओं की गम्भीर एवं विस्तृत समीक्षा अति मुखर नहीं हो पायी थी। बौद्ध-दर्शन की एवं अन्य-दार्शनिक-मतों की समीक्षा का प्रौढ़ स्वरूप हमें न्याय एवं तर्क-युग से ही प्राप्त होता है। इस युग का प्रारंभ लगभग ईस्वी सन् की आठवीं-नौवीं शताब्दी से होता है और लगभग बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी तक यह अपने प्रौढ़ स्वरूप को ग्रहण कर लेता है। हरिभद्र, अकलंक, विद्यानंदी, वादिराजसूरि, वादिदेवसूरि, प्रभाचंद्र, रत्नप्रभ, हेमचंद्र, मल्लिषेण, गुणरत्न आदि जैन-आचार्यों के ग्रन्थों में अन्य-दार्शनिक-मतों की गहन समीक्षा उपलब्ध होती है। जैन-न्याय एवं तर्क के प्रौढ़ ग्रंथ इसी कालखण्ड में लिखे गए हैं। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि रत्नाकरावतारिका भी जैन-दर्शन और अन्य-दार्शनिक-मतों की समीक्षा संबंधी प्रौढ़-ग्रन्थों के रचना-युग की ही एक रचना है। अष्टसहस्री, न्यायविनिश्चय, प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रमाणनयतत्त्वालोक, स्याद्वादरत्नाकर और
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