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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
निषेध करता है। एकान्तिक दृष्टियों का निषेध ही शून्यवाद का मूल उत्स ( सार - तत्त्व ) है । शून्यवादी दार्शनिक भी जैनों के समान ही एकान्तवाद के विरोधी हैं, फिर भी जैन- दर्शन और शून्यवाद में यह अन्तर है कि जैन- दार्शनिक सत्ता के सत् असत् उभय और अनुभय- इन चारों पक्षों को स्वीकार करते हैं, जबकि शून्यवादी इन चारों पक्षों का निषेध करते हैं। शून्यवाद कहता है कि परम-तत्त्व न सत् है, न असत् है, न उभय है, न अनुभय है। इसके विपरीत, जैन-दर्शन सत्ता को सत्, असत् उभय और अनुभय- इन चारों रूपों में स्वीकार करता है । वस्तुतः, निषेधात्मक भाषा के प्रयोग के कारण बौद्धदर्शन का चरम विकास शून्यवाद के रूप में हुआ, तो विधानात्मक - भाषा को महत्त्व देने के कारण जैन-दर्शन का विकास अनेकान्तवाद या स्याद्वाद के रूप में हुआ । संक्षेप में कहें, तो जहाँ शून्यवाद सत्ता को चतुष्कोटि विनिर्मुक्त कहता है, वहीं जैन-दर्शन सत्ता को चतुष्कोटि या सत्व - कोटि से युक्त मानता है— यही दोनों का मुख्य अन्तर है ।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के चौदहवें अध्याय में बौद्ध दर्शन की समीक्षा करते हुए रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि चाहे विज्ञानवादी बौद्धों की तरह विज्ञानाद्वैत को स्वीकार किया जाए, या शून्यवादी - माध्यमिकों की तरह शून्याद्वैत को स्वीकार किया जाए, दोनों ही स्थितियों में क्रिया और क्रियावान् का भेद समाप्त हो जाएगा। इसी प्रकार, यह भी सत्य है कि क्रिया के बिना कर्त्ता और कर्त्ता के बिना क्रिया संभव नहीं है, क्रिया और कर्त्ता एक ही हैं, यह मान्यता भी उचित नहीं है, किन्तु कर्त्ता के अभाव में क्रिया कैसे होगी ? इसी प्रकार, बिना क्रिया किए कर्त्ता कैसे होगा? अतः,, क्रिया और कर्त्ता के एकान्त - अभेद का पक्ष या एकान्तभेद का पक्ष समुचित नहीं है । क्रिया और कर्त्ता- दोनों कथंचित् - भिन्न हैं और कथंचित्-अभिन्न हैं- यही मान्यता जैन-दर्शन के अनेकान्तवाद - सिद्धांत के आधार पर तर्कसंगत सिद्ध होती है ।
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प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के पन्द्रहवें अध्याय में पक्षाभास और हेत्वाभास के सम्बन्ध में मंतव्यों की समीक्षा की गई है। वस्तुतः पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टांताभास- इन तीनों के संदर्भ में बौद्ध - दार्शनिकों ने पर्याप्त गंभीरता से विचार किया है, विशेष रूप से हेत्वाभासों के प्रकारों के संदर्भ में तो जैन–दार्शनिक बौद्ध- दार्शनिकों के ऋणी हैं। इस अध्याय में जहाँ एक ओर दृष्टांताभास के संदर्भ में भगवान् बुद्ध की आप्तता की समीक्षा की गई है, वहीं विरुद्धहेत्वाभास, असिद्धहेत्वाभास, अनेकान्तिक हेत्वाभास के
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