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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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तक तो वह बदल जाएगी। प्रत्यक्ष को तो मात्र वर्तमानकालीन ही कहा गया है, अतः, जो क्षणिक है, उसकी मात्र वर्तमान क्षण में अनुभूति ही संभव हो सकती है और उसके स्वरूप का निर्णय तो कालान्तर में ही होता है
और इसीलिए स्वरूप-निर्णय तो मात्र अनुमानरूप ही हो सकता है। विकल्प मात्र अनुमान में ही संभव है, क्योंकि बौद्ध-दर्शन का मानना है कि विकल्प तो आरोपित हैं, अतः, वे क्षणिक वस्तु या सत्ता का स्पर्श नहीं कर सकते हैं। बौद्ध-दर्शन में जो प्रत्यक्ष को निर्विकल्प माना गया है, उसका मूल आधार उनका वस्तुसत् को निःस्वभाव मानना ही है। जो निःस्वभात है, उसमें नाम, जाति आदि की कल्पना संभव ही नहीं है। बौद्धों ने अपनी ज्ञान-मीमांसा को तत्त्व-मीमांसा पर ही आधारित रखा था और इसलिए उनके पास प्रत्यक्ष को निर्विकल्प मानने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी नहीं था, जबकि जैन-दर्शन के अनुसार, वस्तुसत सामान्य विशेषात्मक होता है, साथ ही परिणामी (परिवर्तनशील) होकर भी नित्य होता है, अतः, उनके लिए प्रत्यक्ष को निश्चयात्मक माना जा सकता था। यही कारण था कि जैनों ने प्रत्यक्ष को निश्चयात्मक मानकर बौद्धों के निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की समालोचना की है। वस्तुतः, जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शन की तत्त्व-मीमांसीय अवधारणाएँ भिन्न-भिन्न हैं, अतः, उनकी प्रमाण-मीमांसा में ऐसा अंतर आना स्वाभाविक है, तो भी यदि हम बौद्धों की तत्त्व-मीमांसा को आधार मानकर प्रमाण-मीमांसीय निर्णय लेंगे, तो वे चाहे उनकी दृष्टि से सत्य हों, तार्किक-दृष्टि से निर्दोष होंगे, जबकि जैन-दार्शनिकों के प्रमाण-मीमांसीय निर्णय भी सम्यक तत्त्व-मीमांसीय आधार पर खड़े होने के कारण अधिक समीचीन प्रतीत होते हैं। जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शन के तत्त्वमीमांसीय आधार भिन्न-भिन्न हैं, अतः, उनकी प्रमाण-मीमांसा में जो अन्तर देखा जाता है, वह स्वाभाविक ही है। वस्तुतः, बौद्धों ने जिस निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की अवधारणा को प्रस्तुत किया है, वह उनकी तत्त्व-मीमांसा की ही परिणति है, जबकि जैनों ने जो उनके निर्विकल्प-प्रत्यक्ष की समालोचना की है, वह जैनों की तत्त्व-मीमांसीय अवधारणा पर आधारित है, अतः, दोनों को अपने-अपने परिप्रेक्ष्य में ही समझने का प्रयत्न किया जाना चाहिए।
इस संदर्भ में डॉ. धर्मचंद जैन का मंतव्य विशेष रूप से दृष्टव्य है। वे लिखते हैं- 'शुद्ध प्रत्यक्ष की दृष्टि से यदि विचार किया जाए, तो बौद्ध-सम्मत निर्विकल्प-प्रत्यक्ष समीचीन प्रतीत होता है, किन्तु प्रमाण द्वारा अर्थक्रिया में प्रवृत्ति या हेयोपादेय के ज्ञान की दृष्टि से यदि विचार किया
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