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________________ 254 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा तथा अग्नि की उपस्थिति या अनुपस्थिति को बताने वाला है, परंतु वह सभी देशों और सभी कालों में अग्नि और धुएँ के अविनाभाव-संबंध को ग्रहण नहीं करता है। अग्नि और धुएँ का यह संबंध भी मात्र रसोईघर तक और वह भी वर्तमानकाल तक ही सीमित है। प्रत्यक्ष की सीमा क्षेत्र-विशेष और काल विशेष ही हैं, उससे अनुमान भी रसोईघर और वर्तमानकाल तक ही हो सकता है। हम जैनों के अनुसार, प्रत्यक्ष तो किसी देश-विशेष और काल-विशेष तक ही सीमित होगा। ऐसी स्थिति में आप (बौद्ध) विशेष से सामान्य पर कैसे पहुँचेंगे ? दूसरे, व्याप्ति तो सामान्य होती है और आप सामान्य को तो काल्पनिक मानते हैं, यथार्थ नहीं, अतएव पर्वत पर धुएँ के दिखाई देने पर भी पर्वत की गुफा में रही हुई अग्नि का ज्ञान कैसे होगा? अतः, हम जैन यह मानते हैं कि इस प्रत्यक्ष से तो मात्र वर्तमानकालिक सम्बन्ध का ज्ञान होगा, जबकि व्याप्ति तो त्रैकालिक-ज्ञान है। जब तक आप बौद्ध अग्नि और धुएँ के संबंध के विषय में भूत और भविष्य का भी ज्ञान नहीं करेंगे, तब तक व्याप्ति-ज्ञान नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाण नियत क्षेत्र और नियत काल को ही विषय करता है और इससे व्याप्ति-संबंध भी नियत-क्षेत्र और नियत-काल विषयक ही होगा। इस कारण से, पर्वत की गुफा में अग्नि का अनुमान मात्र पर्वत पर धुएँ के देखने से नहीं होता है, अपितु अग्नि और धुएँ के त्रैकालिक और सार्वदेशिक व्याप्ति-संबंध के ज्ञान से होता है। बौद्ध - इस पर, बौद्ध कहते हैं कि प्रत्यक्ष के बल (ज्ञान) पर किसी नियत क्षेत्र और काल वाले धुएँ और अग्नि के संबंध से मानसिक-विकल्प उत्पन्न होते हैं और उन विकल्पों के आधार पर त्रैकालिक-व्याप्ति का ज्ञान हो जाता है, जिसके आधार पर अनुमान करके सभी देशों और सभी कालों में व्याप्ति-संबंध मान लिया जाता है, जिससे पर्वतादि पर धुएँ को देखकर गुफा आदि में भी अग्नि के होने का अनुमान कर लिया जाता है। पुनः, बौद्ध कहते हैं कि हम तो प्रत्यक्ष के बल पर सार्वदेशिक और सार्वकालिक अविनाभाव-संबंध (व्याप्ति-संबंध) का विकल्प कर लेते हैं। जैन - इस पर, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि अन्ततः तो आपने हमारे तर्क-प्रमाण को स्वीकार कर ही लिया है, क्योंकि 348 रत्नाकरायतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 399 349 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 399, 400 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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