________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
193
होने पर व्यभिचार-दोष उत्पन्न होगा। इसी प्रकार, यदि किसी व्यक्ति की वाणी में स्खलना होती है, अर्थात् वह बोलना कुछ चाहता है, किन्तु बोला अन्य कुछ जाता है, ऐसे पुरुषों के शब्द तथा तृण-घास, घट-पट आदि के सन्दर्भ में प्रयुक्त वृक्ष शब्द, नशेबाज, पागल, निद्राधीन आदि पुरुष के शब्द, तोता, मैना, कौआ आदि के शब्द- ये सारे शब्दोच्चारण अभिधेय- शून्य होने के कारण इनमें हेतु का साध्य से सम्बन्ध नहीं होने के कारण व्यभिचार-दोष उत्पन्न होता है। इस प्रकार, संकेतक हुए बिना ही शब्द-प्रयोग होता है, ऐसा आप (बौद्धों) का पक्ष खंडित हो जाता है।230
पुनः, आप बौद्ध यह कहते हैं कि संकेतक होने से ही अनुमान में शब्द-प्रयोग होता है, आप ऐसा जो प्रथम-पक्ष मानते हैं, तो यह बताएँ कि 'शब्द स्वयं ही संकेत द्वारा अपनी-अपनी निश्चित वाच्य-वस्तुओं का अनुमान बिना ही अर्थबोध कराते हैं- ऐसा मानने में आपको क्या कोई दोष दिखाई देता है ? यदि नहीं, तो फिर 'शब्द में अर्थबोध कराने की शक्ति है- ऐसा आपको (बौद्धों को) स्वीकार करना चाहिए। यदि आप शब्द को केवल अपोहजन्य ही मानेंगे, तो फिर शब्द अपने वाच्य-अर्थ को कैसे पाएगा? क्योंकि शब्द का एक निश्चित संदर्भ में कोई प्रयोग किया जाता है, तो ही वह सार्थक होता है और वह गुण आगम-प्रमाण में ही होता है, क्योंकि आगम-प्रमाण में प्रत्येक शब्द अपने एक नियत अर्थ का वाचक होता है, जबकि अनुमान में ऐसा नहीं होता है, अतः, आप (बौद्ध) को यह स्वीकार करना चाहिए कि शब्द स्वयं ही संकेत द्वारा अपने वाच्यार्थ का बोध कराता है। दूसरे शब्दों में, शब्द-प्रमाण का अन्तर्भाव अनुमान-प्रमाण में हो जाता है- ऐसा न मानकर आपको शब्द-प्रमाण की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर लेना चाहिए। यही बात जगत् प्रसिद्ध तथा युक्तिसंगत है।
इस पर बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि अन्य की व्यावृत्ति करने के कारण, अर्थात् अन्य का निषेध करते हुए अन्य से सर्वथा भिन्न स्वरूप वाली वस्तु के स्वलक्षण में 'यह घट है जो जलधारण करने की एक ही अर्थक्रिया करने वाला है तथा 'यह पट है जो आवरणरूप एक अर्थक्रिया करने वाला है। इस प्रकार, प्रत्येक वस्तु अपनी-अपनी अर्थक्रिया करने वाली होती है। उस विशिष्ट अर्थक्रिया का जो प्रतिबिंब हमारी बुद्धि में
230 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 620, 621 231 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 621, 622
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org