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________________ १3. भागीरथी जाह्नवी का संक्षिप्त इतिहास हिन्दुओं द्वारा पवित्र मानी गई गंगा नदी के भागीरथी और जाहनवी दो प्रसिद्ध नाम हैं। किस प्रकार (कैसे) रखे गये ये दो नाम? उसका संक्षिप्त इतिहास जैन मतानुसार कुछ इस प्रकार है इस अवसर्पिणी के दूसरे तीर्थंकर धर्म चक्रवर्ती श्री अजीतनाथ प्रभु के लघु (चचेरे) बंधु 'सगर' षड्खण्ड पर विजय प्राप्त करके चक्रवर्ती राजा बने। उनके साठ हजार पुत्रों में से सबसे बड़ा पुत्र था जनु। एक बार जहनु ने एक बेजोड़ कार्य करके पिता को प्रसन्न कर दिया। प्रसन्न होकर राजा सगर ने उससे वरदान माँगने के लिए कहा जहनु ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा-"पिताजी ! बंधुओं सहित समग्र पृथ्वी को देखने की मेरी इच्छा है। सो दण्डरत्न आदि लेकर समग्र पृथ्वी की परिक्रमा करने की अनुमति प्रदान करें।" पिता ने उसको अनुमति दे दी। जह्न ने मन्त्री, सैन्य और साठ हजार बंधुओं के साथ प्रयाण किया। घूमते-घूमते वे अष्टापद पर्वत के निकट आ पहुँचे। इस महान तीर्थ पर रत्नों के मन्दिरों और स्व-काया के अनुसार चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की मणियुक्त प्रतिमाओं का दर्शन करते हुए जहनु आदि का हृदय झूम उठा। रोया-रोया पुलकित हो उठा। मंत्रियों से यह जानकर कि उनके पूर्वज भरत चक्री ने इन चैत्य-बिम्बों की स्थापना की थी, जह्न के हृदय में भी नूतन चैत्यों का निर्माण करने की लालसा जागृत हुई। (अनुवंश के संस्कार हजारों वर्ष तक संतान-संतति में अवतरित होते हैं।) जहनु ने सेवकों को आदेश दियाऐसा ही कोई पर्वत खोज निकालो-जिस पर नूतन चैत्यों का निर्माण किया जा सके। परन्तु गहरी खोज के बाद भी ऐसा कोई भी पर्वत सेवकों को दृष्टिगोचर नहीं हुआ। जनु आदि ने सोचा कि कालान्तर में ये चीजें कहीं चोरी न हो जायें। इसलिए रत्न-मणिमय इन चैत्यों की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। यह सोचकर तीर्थरक्षा के लिए दण्ड रत्न की सहायता से पर्वत के चारों ओर एक हजार योजन गहरी खाई खुदवाई। परन्तु इससे पृथ्वी के नीचे स्थित भवनपति-निकाय के देवों के आवासों में रेत घुसने लगी। देवों ने अपने अधिपति ज्वलन-प्रभ से बात की। ज्वलन-प्रभ ने ऊपर आकर जनु आदि को झिड़कते हुए कहा कि अब से ऐसी नादानी करोगे तो मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा। यह सूचना देकर ज्वलन-प्रभ चले गये, किन्तु तीर्थरक्षा के उत्साह न आदि ने इस बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया। उन्होंने दण्डरत्न की सहायता से गंगा को खींचकर खाई को जल से भर दिया। पानी, (पृथ्वी के) नीचे स्थित नागनिकाय देवों के आवासों तक पहुँच गया और उनके आवास कीचड़ युक्त (मिट्टी युक्त) पानी से सनने लगे। देवों ने फिर से अपने स्वामी ज्लवन-प्रभ से बात की। ज्वलन-प्रभ क्रोध से आग-बबूला हो गया। उसने जहनु आदि के समक्ष दृष्टि विष सर्प छोड़ दिये। और उन सो ने साठ हजार बन्धुओं को एक साथ अग्नि-ज्वालाओं से जलाकर खाक कर दिया। तीर्थ रक्षा के शुभ ध्यान में मरकर वे स्वर्ग को प्राप्त हुए। ___ इस घटना से अत्यन्त शोक-मग्न (शोक-ग्रस्त) मंत्री-सामन्तों आदि ने सोचा-अब किस मुँह से महाराजा के पास जाये? ★४६ ★ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002740
Book TitleAnant Akash me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size10 MB
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