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________________ न नहीं थी परंतु अमृत थी... अद्भुत थी, अपूर्व थी। माताजी ! प्रभु महावीरके उपदिष्ट सर्वसुखकर सर्वत्यागके पथ पर जाने के लिए मंगल आशिष आपका यह बालक चाहता है। संजू ! एक आवाजसे ( धमाकेसे) सर्वत्यागकी बात सुनकर जैसे वज्रपात हुआ हो ऐसे अधध... करती माता मूर्च्छित बनी और धरणी पर जा गिरी। बत्तीस नवयौवनायें धन्य और माताकी चारों ओर खड़ी हो गई। सबकी आँखोंमे पोस पोस आँसू थे... इनके हृदय टूट चुके थे। शीतोपचारसे माता जागृत हुईं। बह रही आँखोसे इन्होंने अपने लाड़लेको बहुत समझाया... . अनेक सवाल-जवाबोंकी झड़ी बरसी... परंतु धन्यको मेरुकी तरह अड़िग-निश्चल देखकर माता आखिर थकी... हारी... अंतमें तो वह सुश्राविका थी । प्रभु वीरकी परम भक्त थी । बत्तीस कामिनीओंको भी (मनमें) हो गया कि "जबरदस्तीमें प्रीत नहीं होती..." सबको यकीन हो गया कि धन्यकुमार अब एक या दो दिनके महेमान हैं... - भद्रा (माता) अपनी नगरीके (काकंदीके) राजा जितशत्रुके पास गई। भेटणा रखकर बोली महाराजन् ! मेरा लाड़ला, वीर परमात्माकी वाणी सुनकर परम वैरागी हुआ है। तो इसका महोत्सव मनानेके लिए छत्र-चामर, साज, शणगार, सैन्य और वाजिंत्रोंके समूहकी याचना के लिए आयी हूँ । राजा के रोमांच खड़े हो गये। वह सिंहासन से खड़ा हो गया। वह बोला : ओ भद्रे ! ओ रत्नकुक्षि ! अरबोंका मालिक -अणगार बनने तैयार हुआ है तो इसका महोत्सव राज्य तरफसे होगा । राजा जिन और जैन का अनुरागी था। वीरप्रभुका अनन्य भक्त था। उसने पूरी नगरीमें पडह बजवाया... माता नि धन्य के मस्तक पर हाथ रखा... बत्तीस वधूओंने सजल नेत्रसे मंगल कामना व्यक्त की। राजा जितशत्रुने धन्यको बाहुपाशमें जकड़ लिया... चूमी भरी और शुभाशिष दी। राजा इसके अतिशय सुकोमल देहको देखता ही रहा। यह सुकुमार देह क्या साधनाके कठोर पथको सहन Jain Education International करेगा....? डांस-मच्छरके उपसर्गको सहन कर सकेगा..? शीतऋतुकी कड़कड़ती ठंडीमें स्थिर रह सकेगा... ? खुल्ले पाँव का विहार इसको लहुलुहान तो नहीं करेगा... ? सच ही... रागीको वितरागका पंथ कठिन लगता है... विरागीको राग - दशाका पंथ खारा लगता है... आखिर महा आडंबर सह धन्यकुमारकी शोभायात्रा शुरू हुई... वृद्धाओंने मंगल किया। नारियाँ मधुर गीत गाने में खो गईं... शहनाईयों के सुर बज उठे, वाजिंत्रोंके नाद आकाशपाताल को एक करने लगे । खुद राजा जितशत्रुने धन्यकुमारके ऊपर छत्र धारण किया... नगरजन धन्यकी शिबिकाको कंधेपर उठाने के लिए एकसाथ उमड़ पड़े । नगरकी प्रत्येक अटारी, अगाशी, मार्ग और राजमार्ग पर मानव-समूह उभर उठे । जय हो... वीतरागी प्रभु वीरकी... जय हो... विरागनिष्ठ धन्यकी... जय हो... विरतीप्रेमी राजा जितशत्रुकी..... जनतामेंसे जयनादके स्वर गुँज उठे। अब धन्ना मात्र भद्राका ही लाड़ला नहीं था ! पूरी नगरीका वह लाड़ला बन गया था। विनयनिष्ठ धन्यकुमार सबको अंजलि जोड़ते और सबकी मंगल कामनाओं को स्वीकारते स्वीकारते पहुँच गये नगरीके बाहरके उद्यानमें प्रभु महावीरके पास... धन्यकुमारने प्रभुको तीन प्रदक्षिणा देकर सविधि वंदन किया... वस्त्रालंकार उतारकर माता भद्राको सौंपे । बादमें केशलुंचनके लिए हाथ उठाया । माता भद्राने आँखें पालव से मूँद दी... बत्तीस बधूओंने वस्त्रको आँखों पर धारण किया। क्योंकि केश - लुंचनका यह दृश्य देखा नहीं जाता था। माता और बहुएँ सभीकी आँखोमेंसे गंगा-जमुना बह रही थी । आखिर माता भद्राने प्रभुको पुत्रभिक्षा अर्पण की.... (व्हेराई) प्रभुने धन्यको पंचमहाव्रत उच्चराये... धन्यका मनमयूर तो नाच उठा। उसके अंग-अंगमें आनंदका सागर छलक (उछल) उठा... विराग-निष्ठ धन्य अब त्यागनिष्ठ बना । उन्होंने तत्काल ही प्रभुके पास यावज्जीवके लिए छट्ठके पारणे आयंबिल करने का कठिन अभिग्रह लिया । त्याग-निष्ठ धन्य अब तपोनिष्ठ बनें। राजा जितशत्रु और भद्रा आदि www.jainelibrary.org For Prodte & Personal Use Only
SR No.002739
Book TitleEk Safar Rajdhani ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmadarshanvijay
PublisherDiwakar Prakashan
Publication Year
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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