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प्राकृत एवं जैनविद्या : शोध-सन्दर्भ
स्वयं हमें यह सूची प्रस्तुत कर संतोष नहीं हुआ, क्योंकि किसी प्रबन्ध को देखे बिना उसकी प्रामाणिकता का दावा निराधार ही होता है। सभी शोध-प्रबन्धों को अलग-अलग और अलग-अलग स्थानों पर देख पाना सम्भव भी नहीं होता, विशेषतः शोधार्थी को। ऐसी दशा में शोधार्थी हताश हो जाता है, इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए न्यास ने प्राकृत एवं जैन विद्या शोध प्रबन्ध संग्रहालय की स्थापना की है, इसमें अब तक लगभग 200 शोध प्रबन्ध एकत्रित हो चुके हैं। जिनका विस्तार से परिचय इस पुस्तक में दिया गया है। संग्रहालय हेतु जैसे सहयोग की आशा हमें थी, प्राप्त नहीं हुआ, आशा है भविष्य में यह शोध प्रबन्धों की दृष्टि से समृद्ध संग्रहालय होगा और इससे भारत व अन्य देशों में जैन विद्याओं पर हुए शोध कार्यों की जानकारी सर्वत्र फैल सकेगी तथा अहिंसा, अपरिग्रह, समाजवाद, स्याद्वाद, अनेकान्त जैसे सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार से मानव जाति का कल्याण होगा। ___1991 में प्राकृत एवं जैन विद्या : शोध सन्दर्भ का द्वितीय संस्करण प्रकाशित हुआ, इसमें भारतीय विश्वविद्यालयों में हुए लगभग 600 तथा विदेशी विश्वविद्यालयों में हुए 45 शोध प्रबन्धों का परिचय दिया गया था। इस संस्करण में प्राकृत एवं जैन विद्या : शोध प्रबन्ध संग्रहालय में संग्रहीत लगभग 110 शोध प्रबन्धों का विस्तृत परिचय यथा, प्रकाशक, मूल्य, पृष्ठ, संस्करण, अध्यायों के नाम आदि की जानकारी दी गई थी, साथ ही हो रहे शोध कार्यों की सूची, विश्वविद्यालयों, प्रकाशकों, निदेशकों तथा इस क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों, विभागों, पत्र-पत्रिकाओं का परिचय भी दिया गया था। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि विभिन्न विषयों के 95 शोध योग्य विषयों की सूची इसमें दी गई थी, जिससे अनेक शोधेच्छ स्कालरों ने विषय का चयन किया और शोध कार्य किया। प्रतिफल हमारे सामने है आज जैन विषयों पर भारी मात्रा में शोध कार्य हो रहा है।
1993 में पुनः एक परिशिष्ट छापकर लगभग 145 शोध प्रबन्धों की जानकारी दी, परिशिष्ट में हमने अपूर्ण जानकारी वाले शोधकर्ताओं के नाम देकर उनके विषय में जानकारी देने का निवेदन किया था, किन्तु उपयुक्त जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी।
अनेक वर्षों से शोध संदर्भ अप्राप्त था, शताधिक पत्र इसके लिए आये जिन्हें या तो फोटो स्टेट कराकर भेजना पड़ा, या अन्य किसी का नाम पता देकर उसके पास देखने का निवेदन करना पड़ा। अतः यह तीसरा संस्करण प्रकाशित करने की महती आवश्यकता थी। प्रथम, द्वितीय संस्करण तथा परिशिष्ट आदि में जो
प्रविष्टियां थीं उन सभी को इस संस्करण में समाहित किया गया है साथ ही अब Jain Education International
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