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________________ पाठ १ भगवती आराधना रस्स जह दवारं महस्स चक्खं तरुस्स जिह मूलं ॥ तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियांततवाणं ॥३६॥ भावाणुरागपेमाणुरागमज्जाणुरागरत्तो व्वं ॥ धम्माधम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिच्चं ॥३७॥ दंसणभट्ठो भट्ठो दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं ॥ सिझंति चरियभट्ठा दंसणे भट्ठा ण सिझंति ॥३८॥ दंसणभट्ठो भट्ठो ण हु भट्ठो होइ चरणभट्ठो हु दंसणममुयंतस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे ॥३९॥ सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणाम। जादो हु सेणिगो आगमेसि अरहो अविरदो वि॥४०॥ कल्लाणपरपरयं लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता॥ सम्मइंसणरयणं णग्घदि ससुरासुरो लोओ॥४१॥ सम्मत्तस्स य लंभो तेलोकस्स य हवेज जो लंभो॥ सम्मइंसणलंभो वरं खु तेलोक्कलं ॥ भादो॥४२॥ लढूण वि तेलोकं परिवडदि हु परिमिदेण कालेण। लहूण य सम्मत्तं अक्खयसुक्खं लह दि मोक्खं ॥४२॥ सम्मत्तं ॥ अरहंतसिद्धचेदियपवयणआयरियसव्वसाधूसु। तिव्वं करेहि भत्ती णिव्विदिगिच्छेण भावेण ॥४३॥ संवेगजणिदकरणा णिस्सल्ला मंदरोव्व ण्णिकंपा। जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भवं णत्थि संसारे॥४४॥ एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुगाई णिवारेढुं। पुणाणि य तरेदुं आसिद्धिपरंपरसुहाणं ॥४५॥ तह सिद्धचेदिए पवयणे य आयरियसव्वसाधूसु। भत्ती होदि समत्था संसारुछेदणे तिव्वा ॥४६॥ विजा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य। किह पुण णिव्वुदिबीजं सिज्झिहदि अभत्तिमंतस्स ॥४७॥ तेसिं आराधणणायगाणं ण करेज जो णरो भत्तिं। धत्तिं पि संजमंतो सालिं सो ऊसरे ववदि॥४८॥ वीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वा समब्भएण विणा। आराधणमिछंतो आराधगभत्तिमकरंतो॥४९॥ विधिणा कदस्स सस्सस्स जहा णिप्पादयं हवदि वासं। तह अरहादियभत्ती णाणचरणदसणतवाणं ॥५०॥ वंदणभत्तीमत्तेण चेवमिहिलाहिवो य पउमरहो। देविंदयाडिहेरं पत्तो जादो गणधरो या॥५१॥ भत्ती आराधणापुरस्सरमणण्णहिदओ विसुद्धलेसाओ। संसारस्स खयकरं मा मोचीओ णमोकारं ॥५२॥ प्राकृत-पाण्डुलिपि चयनिका (६७) Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.002730
Book TitlePrakrit Pandulipi Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2006
Total Pages96
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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