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In the Mahapurana, Uttarapurana, Having attained the Gandharva state, Jivandhar Kumar was found sitting comfortably. Without anyone knowing, he returned to Rajapur. This is fitting, for the festival of loved ones is the love of lovers. After some days, like before, he left that city. The virtuous Jivandhar Kumar, carrying bow and arrow, went to the country of Sujana, and reached Hemabh Nagar. The king there was named Dridhamitra, and his queen was Nalina. Their daughter was named Hemabha. At the time of Hemabha's birth, a sage had said that in the Manohar forest, in the armory, during the archery practice, the arrow shot by the one whose arrow would return from the target would be the husband of this auspicious girl. Hearing this order, all the archers of that time were practicing in the same way, hoping to win her hand. By chance, Jivandhar Kumar also reached that place. Seeing him, the archers said, "Brother, have you also practiced archery as per the king's order?" Jivandhar Kumar replied, "Yes, I have." Then the archers said, "Good, then shoot at this target." Jivandhar Kumar, taking his prepared bow and arrow, shot at the target, but his arrow returned before reaching it. Seeing this, those present informed the king. The king was delighted and said, "The special creeper I was searching for has come to my feet itself." Then, with great pomp and ceremony, he gave his daughter to Jivandhar Kumar. The Acharyas say, "Behold, this is called punya." Gunamitra, Bahumitra, Sumitra, Dhanamitra, and many other relatives of Jivandhar Kumar were all made proficient in all knowledge by him. He lived there for a long time, enjoying the fruits of his past punya. Meanwhile, Gandharvadatta would come to Jivandhar Kumar secretly, again and again. Seeing this, one day Nandadhya asked, "Tell me, where do you go secretly? I also want to go there." Smiling, Gandharvadatta replied, "Where I go...
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________________ महापुराणे उत्तरपुराणम गन्धर्वदशा सम्प्राप्य जीवन्धरकुमारकम् । तं सुखासीनमालोक्य केनाप्यविदितं पुनः ॥ ४३८ ॥ आयाद्राजपुरं प्रीतिः प्रीतानां हि प्रियोत्सवः । ततः कतिपयैरेव दिनैः प्रागिव तत्पुरात् ॥ ४१९ ॥ चापबाणधरो गत्वा विषये सुजनाह्वये । हेमाभनगरं प्राप्तः कुमारः पुण्यसाधनः ॥ ४२० ॥ तत्पतिर्हदमिश्राख्यो नलिना तस्य वल्लभा । हेमाभाख्या तयोः पुत्री तज्जन्मन्येव केनचित् ॥ ४२१ ॥ कृतः किलैवमादेशो मनोहरवनान्तरे । खलूरिकायां धानुष्कव्यायामे येन चोदितः ॥ ४२२ ॥ लक्ष्याभ्यर्णानिवृत्तः सन् शरः पश्चात्समेष्यति । वल्लभा तस्य बालेयं भवितेति सुलक्षणा ॥ ४२३ ॥ धनुर्विद्याविदः सर्वे तदादेशश्रुतेस्तदा । तथा गुणयितुं युक्ताः समभूवंस्तदाशया ॥ ४२४ ॥ जीवन्धरकुमारोऽपि तत्प्रदेशमुपागमत् । धानुष्कास्तं विलोक्याहुरादेशोक्तधनुःश्रमः ॥ ४२५ ॥ किमङ्गास्तीति सोऽप्याह किञ्चिदस्तीति तैरिदम् । विध्यतां लक्ष्यमित्युक्तः सज्जीकृतधनुः शरम् ॥ ४२६ ॥ आदाय विद्धवान् लक्ष्यमप्राप्यैष न्यवर्तत । तं तदालोक्य तत्रस्था महीपतिमवोधयन् ॥ ४२७ ॥ मृग्यमाणो हि मे वल्लीविशेषश्चरणेऽसजत् । इति क्षितीश्वरः प्रीतो विवाहविधिना सुताम् ॥ ४२८ ॥ अश्राणयद्विभूत्यास्मै तदिदं पुण्यमुच्यते । आदिमो गुणमित्रोऽन्यो बहुमित्रस्ततः परः ॥ ४२९॥ सुमित्रो धनमित्रोऽन्यस्तथान्ये चास्य मैथुनाः । तान् सर्वान् सर्वविज्ञानकुशलान् विदधच्चिरम् ॥ ४३०॥ तत्र पूर्वकृतं पुण्यं कुमारोऽनुभवन् स्थितः । इतो जीवन्धराभ्यर्णमप्रकाशं मुहुर्मुहुः ॥ ४३१ ॥ गत्वा गमनमालोक्य नन्दाक्येन कदाचन । अज्ञाता केनचिद्यासि क यियासुरहश्च तत् ॥ ४३२ ॥ देति पृष्ट्वा गन्धर्वदशा स्मित्वाब्रवीदिदम् । मया प्राप्यं प्रदेश चेवच गन्तुं यदीच्छसि ॥ ४३३ ॥ ५१० बहुत ही सन्तुष्ट हुए और उसी नगर में सुख से रहने लगे । इस तरह कुछ समय व्यतीत होनेपर किसी समभ गन्धर्वदत्ता अपनी विद्याके द्वारा जीवन्धर कुमारके पास गई और उन्हें सुखसे बैठा देख, किसीके जाने बिना ही फिरसे राजपुर वापिस आ गई सो ठीक ही है क्योंकि प्रियजनोंका उत्सव ही प्रेमी जनोंका प्रेम कहलाता है । तदनन्तर कितने ही दिन बाद पहलेके समान उस नगर से भी वे पुण्यवान् जीवन्धर कुमार धनुष बाण लेकर चल पड़े और सुजन देशके हेमाभ नगरमें जा पहुँचे ।। ४१७-४२० ।। वहाँ के राजाका नाम दृढ़ मित्र और रानीका नाम नलिना था । उन दोनोंके एक हेमाभा नामकी पुत्री थी । हेमाभाके जन्म समय ही किसी निमित्त ज्ञानीने कहा था कि मनोहर नामके वनमें जो आयुधशाला है वहाँ धनुषधारियोंके व्यायामके समय जिसके द्वारा चलाया हुआ बाण लक्ष्य स्थानसे लौटकर पीछे वापिस आ जावेगा यह उत्तम लक्षणोंवाली कन्या उसीकी वल्लभा होगी ।। ४२१-४२३ ।। उस आदेशको सुनकर उस समय जो धनुष-विद्या के जाननेवाले थे वे सभी उक्त कन्याकी शासे उसी प्रकारका अभ्यास करनेमें लग रहे थे ।। ४२४ ।। भाग्यवश जीवन्धर कुमार भी उस स्थान पर जा पहुँचे । धनुषधारी लोग उन्हें देखकर कहने लगे कि हे भाई! राजाके आदेशानुसार क्या आपने भी धनुष चलानेमें कुछ परिश्रम किया है ।। ४२५ ।। इसके उत्तरमें जीवन्धर कुमार ने कहा कि हाँ, कुछ है तो । तब उन धनुषधारियोंने कहा कि अच्छा तो यह लक्ष्य बेधोयहाँ निशाना मारो | इसके उत्तरमें जीवन्धर कुमारने तैयार किया हुआ धनुष-बाण लेकर उस लक्ष्यको बेध दिया और उनका वह बाण लक्ष्य प्राप्त करनेके पहले ही लौट आया। यह सब देख, वहाँ जो खड़े हुए थे उन्होंने राजाको खबर दी ।। ४२६-४२७ ॥ राजा सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुआ और कहने लगा कि मैं जिस विशिष्ट लताको ढूँढ रहा था वह स्वयं आकर पैरोंमें लग गई। तदनन्तर उसने faaient विधि अनुसार बड़े वैभवसे वह कन्या जीवन्धर कुमारके लिए दे दी । श्राचार्य कहते हैं कि देखो, पुण्य यह कहलाता है । गुणमित्र, बहुमित्र, सुमित्र, धनमित्र तथा और भी कितने ही जीवन्धर कुमारके साले थे उन सबको वे समस्त विद्याओंमें निपुण बनाते तथा पूर्वकृत पुण्यका उपभोग करते हुए वहाँ चिरकाल तक रहे आये । इधर गन्धर्वदत्ता बार-बार छिपकर जीवन्धर कुमारके पास आती जाती थी उसे देख एक समय नन्दाढ्यने पूछा कि बता तू छिपकर कहाँ जाती है ? मैं भी वहाँ जाना चाहता हूं । इसके उत्तरमें गन्धर्वदत्ताने हँसकर कहा कि जहाँ मैं जाया करती हूँ उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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