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## The Fifty-Seventh Chapter Knowing this, he informed his father and, with his permission, offered the daughter to the prosperous Kumar, Jiwandhar, for a prosperous union. || 372 || Then, with appropriate love, he enjoyed the desired pleasure. There, the people constantly recounted the tales of his valor and good fortune. || 373 || But the wicked Kashtangarik king, unable to bear the humiliation of Jiwandhar's thwarting his elephant, || 374 || in anger, declared, "This Jiwandhar, a mere Vaishya, has insulted me by hindering my elephant. His duty is to buy and sell things like harad, amalaki, and shunthi. But he has abandoned his caste duties and, filled with pride, engages in activities fit for a prince. Therefore, quickly send this wicked fellow to the jaws of Yama." Thus, he commanded Chand Danda, the chief protector of the city. || 375-377 || Chand Danda, with his army ready, rushed towards Jiwandhar in anger. Jiwandhar, knowing this, also went to meet him with his friends, eager for battle. He defeated Chand Danda without himself being harmed. This further enraged Kashtangarik, who sent a large army. Seeing the army, Jiwandhar, with a compassionate heart, thought, "What is the benefit of killing these insignificant creatures? I will pacify this wicked Kashtangarik by some means." Thinking thus, he remembered his friend, Sudarshan Yaksha, and sought his help. || 378-380 || Knowing Jiwandhar's plight, Sudarshan Yaksha pacified everything. Then, with Jiwandhar's permission, he placed him on the elephant named Vijayagiri and took him to his own home. It is indeed the mark of a true friend to show one's own home. || 381-383 || Jiwandhar's companions and relatives, unaware of his actions, trembled like delicate leaves swaying in the wind, unable to control themselves. But Gandharvadatta, knowing the reason for Jiwandhar's absence, remained calm. "The Kumar is safe, so do not fear. He will soon return," she reassured everyone with her wisdom. || 384-386 || Jiwandhar, staying comfortably in the Yaksha's abode for a long time, conveyed his desire to fight through gestures. || 387 ||
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________________ पञ्चसप्ततितमं पर्व विज्ञाय तां निवेद्येतशत्पित्रे तदनुज्ञया । विभूतिमत्कुमाराय शुभयोगे वितेरतुः ॥ ३७२ ॥ ततः समुचितप्रेम्णा स कामं सुखमन्वभूत् । तत्र तच्छौर्य' सौभाग्यसङ्कथां सन्ततं जनैः ॥ ३७३ ॥ farari दुरात्मisit काष्ठाङ्गारिकभूपतिः । कोपादशक्नुवन्सोढुं मगन्धगजबाधनम् ॥ ३७४ ॥ कृत्वा जीवन्धरस्तस्य परिभूतिं व्यधादधीः । पथ्यामलकशुण्ण्यादिदानग्रहणकर्मणः ॥ ३७५ ॥ निजजात्यनुरूपायो विमुखः सुष्ठु गर्वितः । राजपुत्रोचिते वृत्ते विषक्तोऽयं वराटजः ॥ ३७६ ॥ कृतान्तवदनं सद्यः प्रापयेमं कुचेष्टितम् । इत्याख्यच्चण्डदेण्डाख्यं मुख्यं तत्पुररक्षिणम् ॥ ३७७ ॥ स समद्धबलोsधावदभि जीवन्धरं क्रुधा । स कुमारोऽपि तज्ज्ञात्वा ससहायो युयुत्सया ॥ ३७८ ॥ तमभ्येत्य तदेवास्मै ददौ भङ्गमभङ्गरः । पुनः कुपितवान्काष्टाङ्गारिकः स्वबलं बहु ॥ ३७९ ॥ प्राहिणोश निरीक्ष्यार्द्रचितो जीवन्धरो वृथा । क्षुद्रप्राणिविघातेन किमनेन दुरात्मकम् ॥ ३८० ॥ काष्ठाङ्गारिकमे वैनमुपायैः प्रशमं नये । इति यक्षं निजं मित्रमस्मरत्सोऽप्युपागतः ॥ ३८१ ॥ ज्ञातजीवन्धराकूतस्तत्सर्वं शान्तिमानयत् । ततो विजयगिर्याख्यं समारोप्य गजाधिपम् ॥ ३८२ ॥ कुमारं तदनुज्ञानात्स्वावास मनयत्सुहृत् । स्वगेहदर्शनं नाम सद्भावः सुहृदां स हि ॥ ३८३ ॥ सहाया बान्धवाश्वास्य प्रवृत्तेरनभिज्ञकाः । पवनान्दोलितालोलबालपल्लवलीलया ॥ ३८४ ॥ अकम्पित सर्वेऽपि स्वान्सन्धर्तुमशक्तकाः । गन्धर्वदत्ता तद्याननिमिराज्ञा निराकुला ॥ ३८५ ॥ कुमारस्य न भीरस्ति तद्विभीत स्म मात्र भोः । स मङक्ष्वेतीति तान् सर्वान् प्रशान्तिं प्रापयत्सुधीः ॥ ३८६ ॥ जीवन्धरोऽपि यक्षस्य वसतौ सुचिरं सुखम् । स्थित्वा जिगमिषां स्वस्याज्ञापयद्यक्षमिङ्गितैः ॥ ३८७ ॥ जीवन्धर कुमार में लग रही है। तदनन्तर उन्होंने जीवन्धर कुमारके माता-पितासे निवेदन किया और उनकी आज्ञानुसार शुभ योग में ऐश्वर्यको धारण करने वाले जीवन्धर कुमारके लिए वह कन्या समर्पण कर दी ।। ३७१-३७२ ।। इसके बाद जीवन्धर कुमार उचित प्रेम करते हुए सुरमञ्जरीके साथ इच्छानुसार सुखका उपभोग करने लगे । तदनन्तर नगरके लोग निरन्तर जीवन्धर कुमारकी शूर-वीरता और सौभाग्य-शीलता की कथा करने लगे परन्तु उसे दुष्ट काष्ठाङ्गारिक राजा सहन नहीं कर सका इसलिए उसने क्रोधमें आकर लोगोंसे कहा कि इस मूर्ख जीवन्धरने मेरे गन्धवारण हाथी की बाधा पहुँचा कर उसका तिरस्कार किया है। यह वैश्यका पुत्र है इसलिए हरड, आँवला, शोंठ आदि चीजोंका क्रय-विक्रय करना इसका काम है परन्तु यह अपनी जातिके कार्यों से तो विमुख रहता है और अहंकारसे चूर हो कर राजपुत्रोंके करने योग्य कार्य में आसक्त होता है । इसलिए खोटी चेष्टा करने वाले इस दुष्टको शीघ्र ही यमराजके मुखमें भेज दो। इस प्रकार उसने चण्ड दण्ड नामक नगर के मुख्य रक्षकको आज्ञा दी ।। ३७३ - ३७७ ।। चण्डदण्ड भी सेना तैयार कर क्रोधसे जीवन्धर कुमारके सम्मुख दौड़ा। इधर जीवन्धर कुमारको भी इसका पता लग गया इसलिए वे भी मित्रोंको साथ ले युद्ध करनेकी इच्छासे उसके सम्मुख गये और स्वयं सुरक्षित रह कर उसे उसी समय पराजित कर दिया | इससे काष्ठाङ्गारिक और भी कुपित हुआ और उसने बहुत-सी सेना भेजी। उस सेनाको देख कर जीवन्धर कुमार दयार्द्धचित्त होकर विचार करने लगे कि इन क्षुद्र प्राणियोंको व्यर्थ मारनेसे क्या लाभ है ? मैं किन्हीं उपायोंसे इस दुष्ट काष्ठाङ्गारिकको ही शान्त करता हूँ। ऐसा विचार कर उन्होंने अपने मित्र सुदर्शन यक्षका उपकार किया और उसने भी आकर तथा जीवन्धर कुमारका अभिप्राय जान कर सब उपद्रव शान्त कर दिया । तदनन्तर वह यक्ष, जीवन्धर कुमारकी सम्मति से उन्हें विजयगिरि नामक हाथी पर बैठा कर अपने घर ले गया सो ठीक affarए अपना घर दिखलाना मित्रोंका सद्भाव रहना ही है ।। ३७८-३८३ ।। जीवन्धर कुमारकी प्रवृत्तिको नहीं जानने वाले उनके साथी और भाई-बन्धुलोग हवासे हिलते हुए चञ्चल छोटे पत्तोंके समान कँपने लगे और वे सब अपने आपको संभालने में समर्थ नहीं हो सके । परन्तु गन्धर्वदत्ता जीवन्धरके जानेका कारण जानती थी इसलिए वह निराकुल रही। 'कुमारको कुछ भी भय नहीं है, इसलिए आप लोग डरिये नहीं, वे शीघ्र ही आजायेंगे, ऐसा कह कर उस बुद्धिमतीने सबको शान्त कर दिया ।। ३८४-३८६ ।। उधर जीवन्धर कुमार भी यक्षके वरमें बहुत दिन १ सद्भाग्य ब० । २ तत्पुररचिणाम् क्ष० । Jain Education International ५.०७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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