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पञ्चसप्ततितमं पर्व सक्ष्यस्थोचितम्यकथाभिः संसृतेः स्थितिम् । प्ररूप्य धर्ममार्गश्च प्रत्यहं समरीरमत् ॥ २५ ॥ इतः सत्यन्धराख्यस्य नृपेन्द्रस्य कनीयसी। भामारतिः परानझपताका च मनोरमे ॥ २५४ ॥ मधुरं वकुलञ्चान्यमलभतां सुतावुभौ । ज्ञात्वा तद्धर्मसद्भावं गृहीतश्रावकयते ॥ २५५ ॥ तौ च गन्धोत्कटेनैव पोषितौ वृद्धिमापतुः । तत्रैव श्रावको जातो मत्यन्तविजयादयः ॥ २५ ॥ सागरो धनपालाख्यश्चतुर्थो मतिसागरः । सेनापतिः पुरोधाश्च श्रेष्ठी मन्त्री च भूभुजः ॥ २५॥ भार्या जयावती श्रीमती श्रीदता यथाक्रमम् । चतुर्थ्यनुपमा तेषां देवसेनः सुतोऽपरः ॥ २५८ ॥ बुद्धिषेणो वरादिश्च दत्तो मधुमुखः क्रमात् । षट् ते जीवन्धराख्येन मधुराद्याः सुताः समम् ॥ २५९ ॥ अवर्धन्त कुमारेण बालकेलीपरायणाः । जीवादयः पदार्था वा लोकातस्मान्महाशयात् ॥ २६॥ नक्त दिवं निजप्राणसमाः काप्यनपायिनः । अथ नन्दापि नन्दाख्यं क्रमेणाप्तकसी सुतम् ॥७॥ अन्येर्नगरोद्याने कोऽपि तापसरूपश्त् । कुमारं गोलकाद्यक्तबालक्रीडानुषङ्गिणम् ॥ २१॥ विलोक्यास्मास्कियर पुरं ब्रहीति पृष्टवान् । वृद्धस्यापि तवाज्ञत्वं बालोऽप्यत्र न मुह्यति ॥ २६॥ बाह्य पुरवरोद्याने बालक्रीडावलोकनात् । पुरस्यासनवतित्वं केन वा नानुमीयते ॥ २६॥ धूमोपलम्भनादग्निद्रव्यं वेति कृतस्मितः । जीवन्धरोऽवदशस्य चेष्टाछ.यास्वरादिकम् ॥ २६५ ॥ दृष्टा श्रस्वा विविच्यैष सामान्यो नैव बालकः । राजवंशसमुन्नतिः चिरस्यानुमीयते ॥ २६॥
इति केनाप्युपायेन तद्वंशं स परीक्षितुम् । वाम्छन्नयाचतैनं मे भोजन दीयतामिति ॥ २७ ॥ किसी बड़े आश्रममें पहुंची और वहाँ गुप्त रूपसे-अपना परिचय दिये बिना ही रहने लगी। जब वह विजया रानी शोकसे व्याकुल होती थी तब वह यक्षी आकर उसका शोक दूर करनेकी इच्छासे उसकी अवस्थाके योग्य श्रवणीय कथाओंसे उसे संभारकी स्थिति बतलाती थी, धर्मका मार्ग बतलाती थी और इस तरह प्रति दिन उसका चित्त बहलाती रहती थी॥ २५१-२५३ ।। इधर महाराज सत्यन्धरकी भामारति और अनंगपताका नामकी दो छोटी स्त्रियाँ और थीं। उन दोनोंने मधुर और वकुल नामके दो पुत्र प्राप्त किये। इन दोनों ही रानियोंने धर्मका स्वरूप जानकर श्रावकके व्रत धारण कर लिये थे। इसलिए ये दोनों ही भाई गन्धोत्कटके यहाँ ही पालनपोषण प्राप्तकर बढ़े हुए थे। उसी नगरमें विजयति, सागर, धनपाल और मतिसागर नामके चार श्रावक और थे जो कि अनुक्रमसे राजाके सेनापति, पुरोहित, श्रेष्ठी और मन्त्री थे। २५४-२५७ ।। इन चारोंकी स्त्रियोंके नाम अनुक्रमसे जयावती, श्रीमती, श्रीदत्ता और अनुपमा थे। इनसे क्रमते
न, बुद्धिषेण, वरदत्त और मधुमुख नामके पुत्र उत्पन्न हुए थे। मधुरको प्रादि लेकर वे छहों पुत्र, जीवन्धर कुमारके साथ ही वृद्धिको प्राप्त हुए थे, निरन्तर कुमारके साथ ही बालक्रीड़ा करने में तत्पर रहते थे और जिस प्रकार जीवाजीवाद छह पदार्थ कभी भी लोकाकाशको छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते हैं उसी प्रकार वे छहों पुत्र उत्कृष्ट अभिप्रायके धारक जीवन्धर कुमारको छोड़कर कहीं अन्यत्र नहीं जाते थे। रात-दिन उनके साथ ही रहते थे और उनके प्राणोंके समान थे। तदनन्तर गन्धोत्कटकी स्त्री सुनन्दाने भी अनुक्रमसे नन्दान्य नामका पुत्र प्राप्त किया ॥ २५०-२६१ ॥
किसी एक दिन जीवन्धर कुमार नगरके बाह्य बगीचेमें अनेक बालकोंके साथ गोली बंटा आदि बालकोंके खेल खेलनेमें व्यस्त थे कि इतनेमें एक तपस्वी आकर उनसे पूछता है कि यहाँसे नगर कितनी दूर है ? तपस्वीका प्रश्न सुनकर जीवन्धर कुमारने उत्तर दिया कि 'आप वृद्ध तो हो गये परन्तु इतना भी नहीं जानते । अरे, इसमें तो बालक भी नहीं भूलते। नगरके बाह्य बगीचेमें बालकोंको खेलता देख भला कौन नहीं अनुमान लगा लेगा कि नगर पास ही है ? जिस प्रकार कि धूम देखनेसे अग्निका अनुमान हो जाता है उसी प्रकार नगरके बाह्य बगीचेमें बालकोंकी क्रीड़ा देख नगरकी समीपताका अनुमान हो जाता है। इस प्रकार मुस्कुराते हुए जीवन्धर कुमारने कहा । कुमारकी चेष्टा कान्ति तथा स्वर आदिको देखकर तपस्वीने सोचा कि यह बालक सामान्य बालक नहीं है, इसके चिह्नोंसे पता चलता है कि इसकी उत्पत्ति राजवंशमें हुई है। ऐसा विचार कर उस तपस्वीने फिसी उपायसे उसके वंशकी परीक्षा करनी चाही। अपना मनोरथ सिद्ध करनेके लिए उसने जीवन्धर
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