________________
३७२
महापुराणे उत्तरपुराणम
प्रसाः कंसमलाश्च चाणूरप्रमुखास्तथा । रङ्गाभ्याशं समाक्रम्य विक्रमैकरसाः स्थिताः ॥ ४८६ ॥
शार्दूलविक्रीडितम्
मध्येरङ्गमुदाचचितविसरो वीरोरुमल्लाप्रणीः
प्रागेव प्रतिमल्लयुद्ध विजयं प्राप्येव दीप्रद्युतिः । भास्वन्तञ्च दिवोऽवतीर्णमधुना योद्धुं गतं मलताम्
जेष्यामीति विवृद्धविक्रमरसः सम्भावयन्स स्वयम् ॥ ४८७ ॥ मालिनी
सहजमसृणगात्रश्चित्तवृतिप्रवीणः ।
Jain Education International
घनघृतपरिधानां बद्धकेशो विकूर्चः
सतत कृतनियोगाद्रोपमलैरमलै
रविकलजयलम्भः सर्वसम्भावितौजाः ॥ ४८८ ॥
स्थिरचरणविवेशो वज्रसारास्थिबन्धो
कठिन पृथुलवक्षाः स्थूलनीलाव्रितुङ्ग
ज्वलितचलितनेत्रां निष्ठुराबद्ध मुष्टि:
भुजपरिघविधायी मुष्टिसंमाय्यमध्यः ।
स्त्रिगुणितनिजमूर्तिस पाहुरीयः ॥ ४८९ ॥
परिणतकरणौघो मंक्षु सञ्चारदक्षः ।
भृशमशनिरिवोप्रां नन्दसूनुः स्थितः सन्
भयमवहदसह्यं प्रेतनाथस्य चोच्चैः ॥ ४९० ॥ वसन्ततिलका
रूपीव शौर्यमखिलं मिलितं वलं वा
रहः समस्तमपि संहतिमीयिवद्वा ।
अहंकार भरे हुए थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो वीर रसके अवतार ही हों ।। ४८२-४८६ ॥ उस समय रङ्गभूमिमें खड़े हुए कृष्ण बहुत भले जान पड़ते थे, उनके चित्तका विस्तार अत्यन्त उदार था, वे बड़े-बड़े वीर पहलवानों में अग्रेसर थे, उनकी कान्ति ऐसी दमक रही थी मानो उन्होंने पहले ही प्रतिमल्लके युद्ध में विजय प्राप्त कर ली हो, उनका पराक्रम रूपी रस उत्तरोत्तर बढ़ रहा था और उन्हें ऐसा उत्साह था कि यदि इस समय मल्लका रूप धर कर सूर्य भी आकाशसे नीचे उतर आवे तो उसे भी जीत लूँगा ॥ ४८७ ।। उस समय उनके वक्ष बहुत कड़े बँधे थे, बाल बँधे थे, डाँढ़ी मूँछ थी ही नहीं, शरीर स्वभावसे ही चिकना था, वे गोप मल्लोंके साथ अमल्लोंकी तरह सदा युद्धका अभ्यास करते और पूर्ण विजय प्राप्त करते थे, और उनके पराक्रमकी सब सराहना करते थे ।। ४८८ ॥ उनके चरणोंका रखना स्थिर होता था, उनकी हड्डियोंका गठन वज्रके सारके समान सुदृढ़ था, उनकी भुजाएँ अर्गलके समान लम्बी तथा मजबूत थीं, उनकी कमर मुट्ठीमें समानेके योग्य थी, वक्षःस्थल अत्यन्त कठोर तथा चौड़ा था, वे बड़े भारी नीलगिरिके समान थे, उनका शरीर सत्व, रज और तम इन तीन गुणों की मानो मूर्ति था और गर्वके संचारसे कोई उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकता था ।। ४८६ ।। उनके चमकीले नेत्र चञ्चल हो रहे थे, वे बड़ी मजबूत मुट्ठी बाँधे थे, उनकी इन्द्रियोंका समूह पूर्ण परिपक्क था, वे शीघ्र गमन करनेमें दक्ष थे, और वज्र के समान अत्यन्त उग्र थे, इस प्रकार युद्ध भूमिमें खड़े हुए नन्द गोपके पुत्र श्रीकृष्ण यमराजके लिए भी असहनीय भारी भय उत्पन्न कर रहे थे ।। ४६० ।। वे श्रीकृष्ण ऐसे जान पड़ते थे मानो समस्त शुरवीरता ही रूप धरकर आ गई
१ प्रावृत्ताः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org