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The Great Purana, the North Purana Then, the king Vasudeva, known as Devaseena, and his wife, the human Devaki, were brought to Kansa. [369] Kansa, who was second to none in power, was happy to have them. At that time, the Muni Ati Mukta came to the palace for alms. [370] Seeing him, Jivadyaasha, with a smile and joy, gave Devaki's flower-scented clothes to the Muni. [371] "This is Devaki's effort to show her respect to you, Muni," she said. Hearing this, the Muni, filled with anger, said, "This Devaki's son will surely kill your husband." [372] Hearing this, Jivadyaasha, filled with anger, tore the clothes in two. [373] "He will not only kill your husband, but also your father," said the Muni. Hearing this, Jivadyaasha, filled with anger, trampled the clothes with her feet. [374] Seeing this, the Muni said, "Devaki's son will protect the earth, like a woman protects her husband." [375] Jivadyaasha, understanding everything as she had heard, went to Kansa and explained everything to him. [376] Kansa, fearing the Muni's words, even if spoken in jest, went to Vasudeva with great affection and requested, "By your permission, Devaki should come to our house during her delivery and complete the delivery rituals." [377] Vasudeva, persuaded by Kansa's request, agreed. It is true that even the great Munis can make mistakes when it comes to inevitable events. [378-379] The Muni, again, went to Devaki's house for alms. Devaki, standing up, welcomed him with the proper rituals. After offering him food, Devaki and Vasudeva asked him, "Will we ever be able to take initiation?" Knowing their intention, the Muni said, "Why do you ask so deceitfully? You will have seven sons. Six of them will grow up in other places and attain Nirvana. The seventh son will become a Chakravarti and rule the entire earth under his umbrella for a long time." [380-383] Hearing this, Devaki was overjoyed. Later, she gave birth to two pairs of sons in three births. [384] 1. Tavyabhedayat 2. Snehadevamayacha 3. Damstaha 4. Channata 5. Gnanavata
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________________ महापुराग उत्तरपुराणम अथ स्वपुरमानीय वसुदेवमहीपतिम् । देवसेनसुनामस्मै देवकीमनुजां निजाम् ॥३६९॥ विभूतिमद्वितीयवं काले कंसस्य गच्छति । अन्येधुरतिमुक्ताख्यमुनिभिक्षार्थमागमत् ॥३७०॥ राजगेहं समीक्ष्यैनं हासाजीवद्यशा मुदा । देवकी पुष्पजानन्दवस्त्रमेतवानुजा ॥३७१॥ स्वस्याश्चेष्टितमेतेन प्रकाशयति ते मुने । इत्यवोचत्तदाकर्ण्य सकोपः सोऽपि गुप्तिभित् ॥३७२॥ मुतोऽस्यास्तव भतारं भाग्यवश्यं हनिष्यति । इत्यवोचत्ततः क्रध्वा सा तद्वस्त्रं द्विधा व्यधात् ।।३७३॥ पतिमेव न ते तेन पितरञ्च हनिष्यति । इत्युक्ता सा पुनः क्रुध्वा पादाभ्यां 'तव्यमर्दयत् ॥३७४॥ तद्विलोक्य मुनिर्देवकीसुतः सागरावधिम् । पालयिष्यति भूनारी नारी वेत्यब्रवीत्स ताम् ॥३७५॥ जीवद्यशाश्च तत्सर्वमवधार्य यथाश्रुतम् । गत्वा बुद्धिमती कसं मिथः समवयोधयत् ॥३७६॥ हासेनापि मुनिप्रोक्तमवन्ध्यमिति भीतिमान् । वसुदेवमहीशं स २स्नेहादिदमयाचत ॥३७७॥ प्रसूतिसमयेऽवाप्य देवकी मद्गृहान्तरम् । प्रसूतिविधिपर्याप्तिं विदध्यावन्मतादिति ॥३७८॥ सोऽपि तेनोपरुद्धः संस्तथात्वेतदमस्त तम् । अवश्यम्भाविकार्येषु मुह्यन्त्यपि मुनीश्वराः ॥३७५॥ भिक्षार्थ देवकीगेहं स पुनश्च प्रविष्टवान् । प्रत्युत्थाय यथोक्तेन विधिना प्रतिगृह्य तम् ॥३८॥ देवकी वसुदेवश्च दीक्षात्र स्यान्न वावयोः । किमिति 'छमना ब्रतां ज्ञात्वा सोऽपि तदिङ्गितम् ॥३८॥ ससपुत्राः समाप्स्यन्ते भवद्भयां तेषु षटसुताः। परस्थानेषु वर्धित्वा यास्यन्ति परमां गतिम् ॥३८२॥ सप्तमः सकलां पृथ्वीं स्वच्छत्रच्छायया चिरम् । पालयिष्यति निर्वाप्य चक्रवर्तीत्यभाषत ॥३८३॥ देवकी च मुदा पश्चानिष्कृत्वाप्तवती यमान् । चरमाङ्गानिमान् 'ज्ञातवता शक्रेण चोदितः ॥३८४॥ विचार रहित पापी मनुष्य मुपित होकर क्या क्या नहीं करते हैं ? ।। ३६७-३६८।। तदनन्तर कंस राजा वसुदेवको अपने नगरमें ले आया और उन्हें उसने बड़ी विभूतिके साथ राजा देवसेनको पुत्री तथा अपनी छोटी बहिन देवकी समर्पित कर दी। इस प्रकार कंसका समय सुखसे व्यतीत होने लगा। किसी दूसरे दिन अतिमुक्त मुनि भिक्षाके लिए राजभवनमें आये। उन्हें देख हँसीसे जीवद्यशा बड़े हर्षसे कहने लगी कि 'हे मुने ! यह देवकीका ऋतुकालका वस्त्र है, यह आपकी छोटी यहिन इस वनके द्वारा अपनी चेष्टा आपके लिए दिखला रही है। जीवद्यशाके उक्त वचन सुनकर मुनिका क्रोध भड़क उठा। वे वचनगुप्तिको भङ्ग करते हुए बोले कि इस देवकीका जो पुत्र होगा वह तेरे पतिको अवश्य ही मारेगा। यह सुनकर जीवद्यशाको भी क्रोध आ गया और उसने उस वस्नके दा दकड़ कर दिय। तब मुनिन कहा कि वह न केवल तेरे पतिको मारेगा किन्तु तेरे पि मारेगा। यह सुनकर तो उसके क्रोधका पार ही नहीं रहा । अबकी बार उसने उस वस्त्रको पैरोंसे कुचल दिया। यह देख मुनिने कहा कि देवकीका पुत्र स्त्रीकी तरह समुद्रान्त पृथिवी रूपी स्त्रीका पालन करेगा ।। ३६६-३७५ ॥ जीवद्यशा इन सुनी हुई बातोंका विचार कर कंसके पास गई और उसे परस्परमें सब समझा आई ॥ ३७६ ॥ 'मुनि जो बात हँसीमें भी कह देते हैं वह सत्य निकलती है। यह विचार कर कंस डर गया और राजा वसुदेवके पास जाकर बड़े स्नेहसे याचना करने लगा कि आपकी आज्ञासे प्रसूतिके समय देवकी हमारे ही घर आकर प्रसूतिकी पूरी विधि करे ॥ ३७७॥ कंसक अनुराधसे वसुदेवने भी ऐसा ही होगा' यह कहकर उसकी बात मान ली सो ठीक ही है क्योंकि अवश्यम्भावी कार्यो में मुनिराज भी भूल कर जाते हैं ।। ३७८-३७६ ।। किसी दिन वही अति मनि भिनाके लिए देवकीके घर प्रविष्ट हए तो देवकीने खड़े होकर यथोक्त विधिसे उनका पडिगाहन किया । आहार देनेके बाद देवकी और वसुदेवने उनसे पूछा कि क्या कभी हम दोनों भी दीक्षा ले सकेंगे ? मुनिराजने उनका अभिप्राय जानकर कहा कि इस तरह छलसे क्यों पूछते हो ? आप दोनों सात पुत्र प्राप्त करेंगे, उनमेंसे छह पुत्र तो अन्य स्थानमें बढ़कर निर्वाण प्राप्त करेंगे और सातवाँ पुत्र चक्रवर्ती होकर अपने छत्रकी छायासे चिरकाल तक समस्त पृथिवीका पालन ॥ ३८०-३८३ ।। यह सुनकर देवकी बहुत हर्षित हुई। तदनन्तर उसने तीन बारमें दो-दो युगल पुत्र १ तव्यभेदयत् ल २ स्नेहादेवमयाच प० । ३.दमस्त सः ल०। ४छन्नता ल०। ५ ज्ञानवता ल०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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