SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## The Ashtastama Parva The wise Vibhishana, desiring to make his fame as bright as the moon, spoke these words to the fearsome Ravana. "You, enraged, accused me of treachery in the assembly, and publicly humiliated me. Even now, you insult me, using your power as a brother. You are not worthy of killing me, so leave my land," Ravana said harshly. Vibhishana thought, "This wicked man's destruction is inevitable. My destruction along with him will only bring me shame." "You have banished me from my land, but it is for the best. It is said, 'The clouds rain in the forest.' This proverb has come true for me today, thanks to my good fortune. Now, I will go to the lotus feet of Ramachandra." Vibhishana thought this in his heart and made his decision. He quickly crossed the ocean, like a gesture of courtesy, and reached Ramachandra, just as the flow of a great river reaches the sea. Ramachandra sent Lakshmana and other great warriors, who were skilled in the art of waves, to welcome Vibhishana. They brought him back, after testing and gaining his trust. Vibhishana, understanding Ramachandra's influence, became one with him. After traveling a few stages, Ramachandra's army reached the shore of the ocean and settled down. At that time, Shrutaman spoke to Ramachandra, "O Lord, if you command, I will go to Lanka, to display my valor. I will destroy the forest and break the pride of your enemy." "I will also burn Lanka and set fire to the enemy's body. If he comes here, driven by his pride, he will be easily destroyed, having lost his place. Even if he doesn't come, his pride will surely be broken." Hearing this request, King Ramachandra granted permission and appointed many valiant Vidyadharas to assist him. Shrutaman, pleased with Ramachandra's command, quickly created a fearsome army of Vanaras using his Vanara-vidya. He then crossed the ocean with his army, swiftly overtaking the forest guards.
Page Text
________________ अष्टष्टं पर्व वचोऽवोचद्विचार्योश्चैर्यशः कर्तुं शशिप्रभम् । भाषा विभीषणायैवं भाषमाणाय भीषणः ॥ ४९५ ॥ रुषितो रावणो दूते नैकत्वमुपगम्य मे । पराभवं सभामध्ये प्रादुस्सहमजीजनः ॥ ४९६ ॥ सम्प्रत्यपि दुरुक्तोऽहं त्वया सहजताबलात् । अवध्यो याहि मद्देशादित्यभाषत निष्ठुरम् ॥ ४९७ ॥ सोsपि दुश्चरितस्यास्य नाशोऽवश्यं भविष्यति । सहानेन विनाशो मां दूषयत्ययशस्करः ॥ ४९८ ॥ निर्वासितोsहं निर्भर्त्य देशाद्धितमुदाहरन् । इष्ट एव किलारण्ये वृष्टो देव इति श्रुतिः ॥ ४९९ ॥ पुण्याम्ममाद्य सम्पन्ना यामि रामक्रमाम्बुजम् । इत्यन्तर्गतमालोच्य विनिश्चित्य विभीषणः ॥ ५०० ॥ जलधेर्जलमुल्लङ्घय सौजन्यमिव सत्वरम् । महानदीप्रवाहो वा वारिधिं राममासदत् ॥ ५०१ ॥ लक्ष्मणप्रमुखान्मुख्यान् वेलालीलावहान् वहून् । प्रत्युद्गमय्य विस्रम्भ्य तमानीय परीक्षया ॥ ५०२ ॥ सोऽपि ज्ञातानुभावत्वादेकीभावमुपागमत् । ततः कतिपयैरेव प्रयाणैर्गतबहुलम् ॥ ५०३ ॥ जलधेस्तटमाश्रित्य सन्निविष्टं समन्ततः । तदा तत्राणुमानित्थं रामं विज्ञापयन्मिथः ॥ ५०४ ॥ देवादेशोऽस्ति चेद्गत्वा लङ्कां शौर्योजिहीर्षया । वनभङ्गेन ते शत्रोर्मानभङ्गं करोम्यहम् ॥ ५०५ ॥ लङ्कादाहेन दाहं च देहस्या हितकारिणः । तथा सति स मानित्वादसौ चेदागमिष्यति ॥ ५०६ ॥ स्थानभ्रंशात्सुखोच्छेद्यो नागच्छेतेजसः क्षतिः । इति श्रुत्वास्य विशसि तदस्स्वित्यवदनृपः ॥ ५०७ ॥ सहायश्वादिशतस्य विद्येशान् शौर्यशालिनः । लब्धाज्ञः सोऽपि सन्तुष्य सद्यो वानरविद्यया ॥ ५०४ ॥ प्रादुर्भावितदुःप्रेक्ष्य नाना वानरसेनया । द्रुतं वाराशिमुल्लङ्घय विक्रमाद्वनपालकान् ॥ ५०९ ॥ ३१३ निश्चय कर सीता रामचन्द्र के लिए सौंप दीजिये । इस प्रकार विभीषणने अच्छी तरह विचार कर यशको चन्द्रमा के समान उज्ज्वल करनेके लिए लक्ष्मीरूपी लताको बढ़ानेवाले तथा धर्म और सुख देनेवाले उत्कृष्ट वचन कहे । परन्तु इस प्रकारके उत्तम वचन कहनेवाले विभीषणके लिए वह भयङ्कर रावण कुपित होकर कहने लगा कि 'तूने दूतके साथ मिलकर पहले सभा के बीच मेरा असहनीय तिरस्कार किया था और इस समय भी तू दुर्वचन बोल रहा है । तू मेरा भाई होनेसे मारने योग्य नहीं है इसलिए जा मेरे देश से निकल जा' । इस प्रकार रावणने बहुत ही कठोर शब्द काहे ॥ ४६४४६७ ।। रावण की बात सुनकर विभीषणने विचार किया कि इस दुराचारीका नाश अवश्य होगा, इसके साथ मेरा भी नाश होगा और यह अपयश करनेवाला नाश मुझे दूषित करेगा || ४६८ || इसने तिरस्कार कर मुझे देशसे निकाल दिया है यह अच्छा ही किया है क्योंकि मुझे यह इष्ट ही है । 'बादल जङ्गल में ही बरसे' यह कहावत आज मेरे पुण्यसे सम्पन्न हुई है । अब मैं रामचन्द्रके चरणकमलोंके समीप ही जाता हूँ । इस प्रकार चित्तमें विभीषणने विचार किया और ऐसा ही निश्चय कर लिया ।। ४६६-५०० ।। वह शीघ्र ही सौजन्यकी तरह समुद्रके जलका उल्लङ्घन कर गया और जिस प्रकार किसी महानदीका प्रवाह समुद्रके पास पहुँचता है उसी प्रकार वह रामचन्द्रके समीप जा पहुँचा ।। ५०१ ।। रामचन्द्रने तरङ्गोंकी लीला धारण करनेवाले लक्ष्मण आदि अनेक बड़े-बड़े योद्धाओं को विभीषणकी अगवानी करनेके लिए भेजा और वे सब परीक्षा कर तथा विश्वास प्राप्त कर उसे ले आये । विभीषण भी रामचन्द्रके प्रभावको समझता था अतः उनके साथ एकीभावको प्राप्त हो गया - हिलमिल गया । तदनन्तर कुछ ही पड़ाव चलकर रामचन्द्रकी सेना समुद्रके तटपर आ पहुंची और चारों ओर ठहर गई । उस समय श्रणुमान्ने परस्पर रामचन्द्रसे इस प्रकार कहा कि हे देव ! यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं अपनी शूर-वीरता प्रकट करनेकी इच्छासे लङ्कामें जाऊँ और वनका नाश कर आपके शत्रुका मान भङ्ग करूँ ।। ५०२ - ५०५ ।। साथ ही लङ्काको जलाकर शत्रुके शरीरमें दाह उत्पन्न करूँ । ऐसा करने पर वह अहङ्कारी रावण अभिमानी होनेसे यहाँ आवेगा और उस दशामें स्थान- भ्रष्ट होनेके कारण वह सुखसे नष्ट किया जा सकेगा। यदि यहाँ नहीं भी आवेगा तो उसके प्रतापकी अति तो अवश्य होगी। श्रणुमान की यह विज्ञप्ति सुनकर राजा रामचन्द्रने वैसा करने की अनुमति दे दी और शूर-वीरतासे सुशोभित अनेक विद्याधरोंको उसका सहायक बना दिया । रामचन्द्रकी आज्ञा पाकर अणुमान् बहुत सन्तुष्ट हुआ । उसने वानर-विद्याके द्वारा शीघ्र ही अनेक भयङ्कर वानरोंकी सेना बनाई और उसे साथ ले शीघ्र ही समुद्रका उल्लङ्घन किया । वहाँ वह ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy