Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
240
It is inferred from the evidence of purposeful actions that there is a soul in the bodies of other men as well. Therefore, it must be accepted that there is a separate entity called the soul, and also the existence of the afterlife, because the memory of past births is seen. || 12 || Just as the intoxication that arises in the mind from drinking alcohol comes from the previous consciousness, similarly, the cause and effect-based intellect that arises in all living beings in the world comes from the previous consciousness. Therefore, although the birth and death of living beings are seen as having a beginning and an end, their existence is eternal in terms of the common consciousness. || 13 || By such arguments, the Chakravarti convinced the nihilistic minister of the existence of the soul, dismissed his family, entrusted the kingdom to his son, and went to the Jinaraja named Samadhigupta, where he took vows of restraint along with kings like Suketu. || 63-65 || They attained the culmination of the progressive purifications, and thus destroyed their karmas. || 66 || Now, they were radiant with the nine perfections and became masters of the pure divine sounds. When the final time came, they abandoned their three bodies - the noble, the radiant, and the karmic - and resided in the realm of the Supreme Lord, the realm of the perfected. || 67 || The Chakravarti, who was delighted by many crowned kings and had attained an excellent position and extraordinary wealth, did not experience any decline in his body due to the auspicious rise of Padma. || 68 || Padma Chakravarti, who had enjoyed many pleasures, did not only attain Lakshmi, but also many other advancements along with fame. Thus, Padma Chakravarti, with Lakshmi, became a source of gathering for the virtuous. || 69 || "He was as lofty as Mount Mandara, with a noble heart. He was free from attachment, like Mount Sumeru. He was the ninth, the unparalleled, shining with the splendor of kings." || 70 ||
________________
२४०
महापुराणे उत्तरपुराणम् बुद्धिपूर्वक्रियालिङ्गादम्यत्राप्यनुमीयते । अस्त्यात्मा भाविलोकश्च सत्वाचातीतसंस्मृतः ॥ १२ ॥ इहलोकादिपर्यन्तवीक्षणैर्जन्मिनां सताम् । बुद्धिकारणकार्यों स्तां चैतन्यान्मद्यधीरिव ॥ १३ ॥ इत्यादि युक्तिवादेन चक्री तं शून्यवादिनम् । श्रद्धाप्यात्मास्तितां 'सम्यक कृतबन्धुविसर्जनः ॥ ९ ॥ नियोज्य स्वात्मजे राज्यं सुकेत्वादिमहीभुजैः। जिनात्समाधिगुप्ताख्यात्सम संयममाददौ ॥ ९५ ॥ विशुद्धिपरिणामानामुत्तरोत्तरभाविनाम् । प्राप्य क्रमेण पर्यन्तं पर्यन्तं प्राप घातिनाम् ॥ ९६ ॥ नवकेवललब्धीद्धविशुद्धब्याहृतीश्वरः। काले कायत्रयं हित्वा पदेऽभत्पारमेश्वरे॥९७ ॥ 3 उदयानोदयादस्य धरणीधरणीमुदः । तानवं तानवं किञ्चित्सम्पदं सम्पदं श्रितः ॥ ९८॥ नापन्नापन्नभोगेन मामतो मामतोदयाः । सपद्माख्यः सपद्माख्यः सङ्गमः सङ्गमः सताम् ॥ ९९ ॥
मन्दराग इवोत्तङ्गो मन्दरागोऽरिधारिणाम् । राजते राजतेजोभिर्नवमोऽनवमो मुदा ॥१०॥ बुद्धिपूर्वक क्रिया देखी जाती है इस हेतुसे अन्य पुरुषोंके शरीरमें भी आत्मा है-जीव है, यह अनुमानसे जाना जाता है । इसलिए आत्मा नामका पृथक् पदार्थ है यह मानना पड़ता है साथ ही परलोकका अस्तित्व भी मानना पड़ता है क्योंकि अतीत जन्मका स्मरण देखा जाता है॥१०-१२॥ जिस प्रकार मदिरापान करनेसे बुद्धिमें जो विकार होता है वह कहाँसे आता है ? पूर्ववर्ती चैतन्यसे ही उत्पन्न होता है इसी प्रकार संसारके समस्त जीवोंके जो कारण और कार्यरूप बुद्धि उत्पन्न होती है वह कहाँ से आती है ? पूर्ववर्ती चैतन्यसे ही उत्पन्न होती है इसलिए जीवोंका यद्यपि जन्ममरणकी अपेक्षा आदि-अन्त देखा जाता है परन्तु चैतन्य सामान्यकी अपेक्षा उनका अस्तित्व अनादि सिद्ध है। इत्यादि युक्तिवादके द्वारा चक्रवर्तीने उस शून्यवादी मन्त्रीको आत्माके अस्तित्वका अच्छी तरह श्रद्धान कराया, परिवारको विदा किया, अपने पुत्रके लिए राज्य सौंपा और समाधिगुप्त नामक जिनराजके पास जाकर सुकेतु आदि राजाओंके साथ संयम ग्रहण कर लिया-जिन-दीक्षा ले ली ।।६३-६५ ॥ उन्होंने अनुक्रमसे आगे-आगे होनेवाले विशुद्धि रूप परिणामोंकी पराकाष्ठाको पाकर घातिया कर्माका अन्त प्राप्त किया-घातिया कोका क्षय किया ॥६॥ अब वे नव केवललब्धियोंसे देदीप्यमान हो उठा और विशुद्ध दिव्यध्वनिके स्वामी हो गये। जब अन्तिम समय आया तब औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंको छोड़कर परमेश्वर सम्बन्धी पदमेंसिद्ध क्षेत्रमें अधिष्ठित हो गये ॥१७॥
अनेक मुकुटबद्ध राजाओसे हर्षित होनेवाले एवं उत्कृष्ट पद तथा सातिशय सम्पत्तिको प्राप्त हुए चक्रवर्ती पद्मके पुण्योदयसे शरीर सम्बन्धी कुछ भी कृशता उत्पन्न नहीं हुई थी॥६॥ जिन्हें अनेक भोगोपभोग प्राप्त हैं ऐसे पद्म चक्रवर्तीको केवल लक्ष्मी ही प्राप्त नहीं हुई थी किन्तु कीर्तिके साथ-साथ अनेक अभ्युदय भी प्राप्त हुए थे। इस तरह लक्ष्मी सहित वे पद्म चक्रवर्ती सजनोंके लिए सत पदार्थोंका समागम प्राप्त करानेवाले हों॥६॥ 'जो मन्दराचलके समान उन्नत थे-उदार थे.
१ सम्यककृतविसर्जनः म । २ परमेश्वरे म०, ख०। परमेश्वरः ल०।३ उदयादुदयास्तस्य क०,घ० । ४ धरणीधरा राजानः तान् नयन्ति, इति धरणीधरण्यः श्रेष्ठराजा मुकुटबद्धा इति यावत्, तैर्मोदते इति धरणीधरणीमुद, तस्य । संसदं समोचीनपदवीम् , संपदं सम्पत्तिम्. श्रितः-श्रयतीति श्रित् तस्य प्राप्तवतः, अस्य पनचक्रवर्तिनः,
उदयात्, उत्कृष्टः अयः उदयः श्रेष्ठपुण्यं तस्मात्, तानवं तनोरिदं तानवं शरीरसम्बन्धि, तानवं काश्ये, न उदयात् न उदितं न प्राप्तमिति यावत् । ५ अापन्नभोगेन प्राप्तभोगेन सह, या लक्ष्मीः , केवलम्, न श्रापत् न प्राप्ता किन्तु मा लक्ष्मीस्तया मता पाहता उदया अभ्युदया अपि आपन प्राप्ताः, यमिति शेषः । पमा च श्राख्या च इति पद्माख्ये ताभ्यां सहितः सपद्माख्यः लक्ष्मीप्रसिद्धिसहितः, मतः पूजितः, संगमयतीति संगमः समीचीनवस्तुप्रापकः, पद्म इति श्राख्या यस्य स पद्माख्यः पद्मनामधेयः, सः चक्रवर्ती, सतां सज्जनानां, संगमः संगमनशीलः, भवत्विति शेषः । ६ मन्दरश्चासागश्चेति मन्दरागः सुमेरुरिव, उत्तुङ्गः उन्नतः उदाराशयः, मन्दो रागोयस्य मन्दरागः, अल्परागयुक्तः, अनासक्त इति यावत्, अरिधारिणाम् अराः सन्ति यस्मिन् स अरी चक्रं तद् धस्तीति शीला अरिधारिणस्तेषां चक्रवर्तिनाम् , नवमः नवमसंख्याकः, राजतेजोभिः-राजप्रतापैः, अनवमः नान्यः अनवमः श्रेष्ठ इति यावत्, एवम्भूतः पनचक्रवर्ती, मुद्रा हर्षेण, राजते शोभते ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org