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Sārthasiddhiṃ samprapadin So'sti gandhilasta stidāruṇaḥ | Prāgbhāge Ekonashaṣṭitam parva vaśīkṛtya tato buddhiṣeṇā cātmakṛtāmunā | Sa vicitramatiḥ mṛtvā tavāyamabhavadgajaḥ || 267 || Bhasmin trilokapraśāsi cavaṇajātisamsmṛteḥ | Nivinṇo'yaṃ samāsana vineyo nāgrahīdvi dhām || 268 || Tyāgo bhogāya dharmasya kācāyaiva mahāmaṇeḥ | Jananyā iva dāsyathaṃ tasmāt tāhak tyajed budhaḥ || 269 || Iti tad bhabhugākarṇya pikām dharmadūṣakam | Dharma eva paraṃ mitram iti dharmarato'bhavat || 270 || Tada eva dattvā svaṃ rājya svaputrayai sya saṃyamam | Mātrā sahayuṣaḥ prānte kalpe'nte'nimisho'bhavat || 271 || Prācano nārakaḥ paraprabhāyā nirgatas ciraṃ | Nānāyonishu sambhramya nānāduḥkhāni nirviśan || 272 || Iha kṣatra pure dāruṇālyasya tanayo'bhavat | Māyā vyādhasya pāpena prāktanenāsidāruṇaḥ || 273 || Bane priyalgukhaṇḍālye pratimayogadhāriṇam | Vajrāyudhaṃ khalasta smillokāntaram ajīgamaṭ || 274 || Soṭhyā vyādhṛtakam tīvram upasarga masau muniḥ | Dharmadhyānena sarvārthasiddhiṃ samprapadīvadhīḥ || 275 || Sasamī pṛthivīṃ pāpād adhyavāsāti dāruṇaḥ | Prāgbhāge dhātakīkhaṇḍe videhe paścime mahān || 276 || Deśo'sti gandhilasta sminayodhyānagare tṛpaḥ | Ahadāso'bhavat tasya suvratā sukhadāyinī || 277 || Ratnamālā tayo rāsīt sūnurvīsabhayāyaḥ | Tasyaiva jinadāsāyām abhūd anāyudhaḥ sutaḥ || 278 || Nāmnā vibhīṣaṇo jāto tāvu bhau rāmakeśavau | Avibhajya śriyaṃ dīrghakālam bhuktvā yathōcitam || 279 || Kālantē keśavo'yāsi dvaddhvāyuḥ śarkarāprabhām | Sa halyapi nivṛtyante vāsitvā lāntavaṃ yayau || 280 || Ādityābhaḥ sa evāhaṃ dvitīyapṛthivī sthitam | Praviśya narakaṃ snehādv vibhīṣaṇam abodhayat || 281 ||
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________________ सार्थसिद्धिं संप्रापदिन सोऽस्ति गन्धिलस्तस्तिदारुणः । प्राग्भागे एकोनषष्टितम पर्व वशीकृत्य ततो बुद्विषेणा चात्मकृतामुना । स विचित्रमतिर्मृत्वा तवायमभवद्गजः ॥ २६७ ॥ भस्मिन् त्रिलोकप्रशासिचवणाजातिसंस्मृतेः । निविण्णोऽयं समासनविनेयो नाग्रहीद्विधाम् ॥ २६८ ॥ त्यागो भोगाय धर्मस्य काचायैव महामणेः । जनन्या इव दास्यथं तस्मात्ताहक त्यजेद् बुधः ॥ २६९ ॥ इति तद्भभुगाकर्ण्य पिकाम धर्मदूषकम् । धर्म एव परं मित्रमिति धर्मरतोऽभवत् ॥ २७०॥ तदैव दत्वा स्वं राज्य स्वपुत्रायैस्य संयमम् । मात्रा सहायुषः प्रान्ते कल्पेऽन्तेऽनिमिषोऽभवत् ॥२७॥ प्राचनो नारकः परप्रभाया निर्गतश्विरम् । नानायोनिषु सम्भ्रम्य नानादुःखानि निर्विशन् ॥ २७२ ॥ इह क्षत्रपुरे दारुणाल्यस्य तनयोऽभवत् । माया व्याधस्य पापेन प्राक्तनेनासिदारुणः ॥ २७३ ॥ बने प्रियल्गुखण्डाल्ये प्रतिमायोगधारिणम् । वज्रायुधं खलस्तस्मिल्लोकान्तरमजीगमत् ॥ २७४ ॥ सोठ्या व्याधकृतं तीव्रमुपसर्गमसौ मुनिः। धर्मध्यानेन सर्वार्थसिद्धिं संप्रापदिवधीः ॥ २७५॥ ससमी पृथिवीं पापादध्यवासातिदारुणः । प्राग्भागे धातकीखण्डे विदेहे पश्चिमे महान् ॥ २७६ ॥ देशोऽस्ति गन्धिलस्तस्मिनयोध्यानगरे तृपः । अहदासोऽभवत्तस्य सुव्रता सुखदायिनी ॥ २७७ ॥ रत्नमाला तयोरासीत्सूनुर्वीसभयायः। तस्यैव जिनदसायामभूदनायुधः सुतः ॥ २७८ ।। नाम्ना विभीषणो जातो तावुभौ रामकेशवौ। अविभज्य श्रियं दीर्घकालं भुक्त्वा यथोचितम् ॥ २७९ ॥ कालान्ते केशवोऽयासीद्वद्ध्वायुः शर्कराप्रभाम् । स हल्यपि निवृत्यन्तेवासित्वा लान्तवं ययौ ॥ २० ॥ आदित्याभः स एवाहं द्वितीयपृथिवीस्थितम् । प्रविश्य नरकं स्नेहाद्विभीषणमबोधयत् ॥ २८१॥ वेश्यासे अपमान पाकर बहुत ही क्रुद्ध हुआ। उसने मुनिपना छोड़ दिया और राजाकी नौकरी कर ली। वहाँ पाकशास्त्रके कहे अनुसार बनाये हुए मांससे उसने उस नगरके स्वामी राजा गन्ध अपने वश कर लिया और इस उपायसे उस बुद्धिषेणाको अपने आधीन कर लिया। अन्त में वह विचित्रमति मरकर तुम्हारा हाथी हुआ है ।। २६६-२६७ ।। मैं यहाँ त्रिलोकप्रज्ञप्तिका पाठ कर रहा था उसे सुनकर इसे जाति-स्मरण हुआ है। अब यह संसारसे विरक्त है, निकट भव्य है और इसीलिए इसने अशुद्ध भोजन करना छोड़ दिया है ।।२६८ ॥ भोगके लिए धर्मका त्याग करना ऐसा है जैसा कि काचके लिए महामणिका और दासीके लिए माताका त्याग करना है इसलिए विद्वानोंको चाहिये कि वे भोगोंका सदा त्याग करें ॥ २६६ ॥ यह सुनकर राजा कहने लगा कि 'धर्मको दूषित करनेवाले कामको धिक्कार है, वास्तवमें धर्म ही परम मित्र है। ऐसा कहकर वह धर्ममें तत्पर हो गया ।। २७० ॥ उसने उसी समय अपना राज्य पुत्रके लिए दे दिया और माताके साथ संयम धारण कर लिया। तपश्चरण कर मरा और आयुके अन्तमें सोलहवें स्वर्गमें देव हुआ ॥२७१।। सत्यघोषका जीव जो पङ्कप्रभा नामक चौथे नरकमें गया था वहाँ से निकलकर चिरकाल तक नाना योनियोंमें भ्रमण करता हुआ अनेक दुःख भोगता रहा ॥२७२ ॥ एक बार वह पूर्वकृत पापके उदयसे इसी क्षत्रपुर नगरमें दारुण नामक व्याधकी मंगी नामक स्त्रीसे अतिदारुण नामका पुत्र हुआ ॥२७३ ।। किसी एक दिन प्रियङ्गखण्ड नामके वनमें वज्रायुध मुनि प्रतिमायोग धारण कर विराजमान थे उन्हें उस दुष्ट भीलके लड़केने परलोक भेज दिया-मार डाला ॥ २७४ ॥ तीक्ष्ण युरिक धारक वे मुनि व्याधके द्वारा किया हुआ तीव्र उपसर्ग सहकर धर्मध्यानसे सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुए॥२७५ ।। और अतिदारुण नामका व्याधमुनिहत्याके पापसे सातव नरकमें उ पूर्व धातकीखण्डके पश्चिम विदेहक्षेत्रमें गन्धिल नामक देश है उसके अयोध्या नगरमें राजा अहहास रहते थे, उनकी सुख देने वाली सुव्रता नामकी स्त्री थी। रत्नमालाका जीव उन दोनोंके वीतभय नामका पुत्र हुआ। और उसी राजाकी दूसरी रानी जिनदत्ताके रत्नायुधका जीव विभीषण नामका पुत्र हुआ। वे दोनों ही पुत्र बलभद्र तथा नारायण थे और दीर्घकाल तक विभाग किये बिना ही राजलक्ष्मीका यथायोग्य उपभोग करते रहे ॥ २७६-२७६ ॥ अन्तमें नारायण तो नरकायका बंध कर शर्कराप्रभामें गया और बलभद्र अन्तिम समयमें दीक्षा लेकर लान्तव स्वर्गमें उत्पन्न हुआ ।। २८० ॥ मैं वही आदित्याभ नामका देव हूं, मैंने स्नेहवश दूसरे नरकमें जाकर वहाँ १ अनिमिषो देवः । २-मबोधयम् म० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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