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एकोनषष्टितम पर्व
१०७ सोऽपि सर्वसहिष्णुः सन् वज्रकायोऽचलाकृतिः । निश्चलो निर्वृति यातः शुक्लध्यानेन शुद्धधीः ॥१२॥ सर्वे निर्वाणकल्याणपूजां कर्तुं सुराधिपाः । चतुर्विधाः समं प्रापस्तदा तद्भक्तिचोदिताः ॥ १२७ ॥ स्वाग्रजाङ्गेक्षणोद्भूततृतीयावगमः क्रुधा । नागेन्द्रो नागपाशेन तान् बवन्धाखिलान् खगान् ॥ १२८॥ नास्माकं देव दोषोऽस्ति विद्यदर्दष्ट ण पापिना । विदेहादमुमानीय भयं चास्मात्स्वचारिणाम् ॥ १२९ ॥ प्रतिपाय जनैरेभिरकारि विविधो मुधा । महोपसर्ग इत्याहुस्तेषु केचिद्विचक्षणाः ॥ १३०॥ श्रुत्वा तसागराजोऽपि तेषु कालुष्यमुत्सृजन् । विद्युईष्ट पयोराशौ सबन्धुं क्षेप्तुमुद्यतः ॥ १३ ॥ मादित्याभस्तदा देवो गुणहेतुस्तयोरभूत् । मध्ये ज्ञातानुबन्धो वा धातुप्रत्यययोः परः॥ १३२॥ कृतदोषोऽस्त्ययं नागनाथ किन्त्वनुरोधतः । ममास्य शम्यतां क्षुद्रे कः कोपस्त्वाहशां पशी ॥ १३३ ॥ पुरादितीर्थकृत्काले भववंशसमुनवैः । वंशोऽस्य निर्मितो दत्वा विद्या विद्याधरेशिनाम् ॥ १३५१
संबद्धर्य विषवृक्षं च छेत्तं स्वयमवैतु कः । इत्याबालप्रसिद्धं किं न वेसि विषभृत्यते ॥ १३५॥ इत्युक्तस्तेन नागेन्द्रः प्रत्युवाच तपोधनम् । मदग्रजमय दुष्टो निर्हेतुकममीमरत् ॥ १३ ॥ तद्धृवं मम हन्तव्यो न निषेध्यं त्वयार्थितम् । मयेति सहसा देवस्तमाह मतिमान् वृथा ॥ १३७ ॥ वैरं वहसि ते भाता जातौ जातोऽयमेव किम्। विद्यद्रष्टो न किं माता सातः संसृतौ भ्रमन् ॥१३८॥
तथा पशुओंको खा जावेगा। इसलिए आप लोग मेरे वचनों पर विश्वास करो, मैं वृथा ही झूठ क्यों बोलूँगा ? क्या इसके साथ मेरा द्वेष है ?' इस प्रकार उसके द्वारा प्रेरित हुए सब विद्याधर मृत्युसे डर गये और जिस प्रकार किसी विश्वासपात्र मनुष्यको ठग लोग मारने लगते हैं उस प्रकार शन का समूह लेकर साधुशिरोमणि एवं समाधिमें स्थित उन संजयन्त मुनिराजको वे विद्याधर सब ओरसे मारने लगे ॥ १२०-१२५ ॥ जयन्त मुनिराज भी इस समस्त उपसर्गको सह गये, उनका शरीर वनके समान सुदृढ़ था, वे पर्वतके समान निश्चल खड़े रहे और शुक्लध्यानके प्रभावसे निर्मल ज्ञानके धारी मोक्षको प्राप्त हो गये ।। १२६ ॥ उसी समय चारों निकायके इन्द्र उनकी भक्तिसे प्रेरित होकर निर्वाण-कल्याणककी पूजा करनेके लिए आये ॥ १२७॥ सब देवोंके साथ पूर्वोक्त धरणेन्द्र भी आया था, अपने बड़े भाईका शरीर देखनेसे उसे अवधिज्ञान प्रकट हो गया जिससे वह बड़ा कुपित हुआ। उसने उन समस्त विद्याधरोंको नागपाशसे बाँध लिया ॥१२८ ॥ उन विद्याधरोंमें कोई-कोई बुद्धिमान भी थे अतः उन्होंने प्रार्थना की कि हे देव ! इस कार्यमें हम लोगोंका दोष नहीं है, पापी विद्युद्दष्ट्र इन्हें विदेह क्षेत्रसे उठा लाया और विद्याधरोंको इसने बतलाया कि इनसे तुम सबको बहुत भय है। ऐसा कहकर इसी दुष्टने हम सब लोगोंसे व्यर्थ ही यह महान् उपसर्ग करवाया है ।। १२६-१३० ।। विद्याधरोंकी प्रार्थना सुनकर धरणेन्द्रने उन पर क्रोध छोड़ दिया और परिवारसहित विद्यदंष्टको समुद्र में गिराने का उद्यम किया ॥१३१॥ उसी समय वहाँ एक आदित्याभ नामका देव आया था जो कि विद्युदंष्ट्र और धरणेन्द्र दोनोंके ही गुण-लाभका उस प्रकार हेतु हुआ था जिस प्रकार कि किसी धातु और प्रत्ययके बीचमें आया हुआ अनुबन्ध गुण-व्याकरणमें प्रसिद्ध संज्ञा विशेषका हेतु होता हो ॥ १३२ ॥ वह कहने लगा कि हे नागराज ! यद्यपि इस विद्युदंष्ट्रने अपराध किया है तथापि मेरे अनुरोधसे इसपर क्षमा कीजिये। श्राप जैसे महापुरुषोंका इस क्षुद्र पशु पर क्रोध कैसा ? ॥ १३३ ॥ बहुत पहले, आदिनाथ तीर्थंकरके समय आपके वंशमें उत्पन्न हुए धरणेन्द्रके द्वारा विद्याधरोंकी विद्याएं देकर इसके वंशकी रचना की गई थी। लोकमें यह बात बालक तक जानते हैं कि अन्य वृक्षकी बात जाने दो, विष-वृक्षको भी स्वयं बढ़ाकर स्वयं काटना उचित नहीं है, फिर हे नागराज! आप क्या यह बात नहीं जानते ?॥१३४-१३५।। जब श्रादित्याभ यह कह चुका तब नागराज-धरणेन्द्रने उत्तर दिया कि 'इस दुष्टने मेरे तपस्वी बढ़े भाईको अकारण ही मारा है अतः यह मेरे द्वारा अवश्य ही मारा जावेगा। इस विषयमें आप मेरी इच्छाको रोक नहीं सकते।' यह सुनकर बुद्धिमान देवने कहा कि-'आप वृथा ही वैर धारण कर
१ 'विषवृक्षोऽपि संवयं स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्' इति कुमारसंभवे कालिदासमहाकवेः ।
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