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प्रस्तावना
पाण्डवपुराण व उसके कर्ता शुभचन्द्र प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता भट्टारक शुभचन्द्र हैं । ये भट्टारक विजयकीर्तिके शिष्य और ज्ञानभूषणके प्रशिष्य थे। इनके शिष्य श्रीपाल वर्णी थे । इनकी सहायतासे भट्टारक शुभचन्द्रने वाग्वर (वागड) प्रान्तके अन्तर्गत शाकवाट (सागवाडा) नगरमें विक्रम संवत् १६०८ भाद्रपद द्वितीयाके दिन इस पाण्डवपुराणकी रचना की' । इसकी श्लोकसंख्या ६००० है।
शुभचन्द्र भट्टारक बहुत विद्वान् व अनेक विषयोंके ज्ञाता थे । पाण्डवपुराणके अतिरिक्त उन्होंने औरभी अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है । देखिये प्रस्तुत पुराणकी कविप्रशस्ति पृ. ५१४ श्लोक १७३-८० ।
___ यहां ग्रन्थरचनाके पूर्व भ. शुभचन्द्रने सिद्धों व वृषभ तीर्थंकर आदिकी स्तुति करते हुए भद्रबाहु ( श्रुतकेवली ), विशाखाचार्य, कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक, जिनसेन ( महापुराणके कर्ता) और भदन्त गुणभद्रका स्मरण किया है । इसके साथही उन्होंने यहभी कह दिया है कि मैं इनके (जिनसेन व गुणभद्रके) पुराणार्थको देखकर पाण्डवोंके पुराण-भारतको कहता हूं। आगे चलकर श्लोक २२ में यहभी प्रगट किया है कि शास्त्रके पारगामी जिनसेन [इन जिनसेनसे हरिवंशपुराणके कर्ता का अभिप्राय इहां प्रतीत होता है ] आदि अनेक कवि हो गये हैं, उनके चरणोंके स्मरणसे उक्त कथाको कहूंगा।
पाण्डवपुराणकी रचनामें भट्टारक शुभचन्द्रने हरिवंशपुराण, आदि व उत्तरपुराण तथा श्वे. देवप्रभ सूरिविरचित पाण्डवचरित्रका काफी उपयोग किया है, ऐसा ग्रन्थके अन्तरङ्ग परीक्षणसे स्पष्ट प्रतीत होता है।
हरिवंशपुराण इसकी रचना कवि जिनसेनाचार्यके द्वारा शकसंवत् ७०५ (विक्रम संवत् ८४० ) में की गई है। इसमें प्रधानतया यादवोंका चरित्र वर्णित है । परन्तु पुराण ग्रन्थ होनेसे इसमें यथास्थान ( जैसे सर्ग ४५, ४६, ४७, ५०-५२, ५४ व ६४ आदि ) पाण्डवोंके चरित्रकाभी वर्णन पाया जाता है । इससे पूर्वके किसी अन्य दिगम्बर प्रन्थमें सम्भवतः इतना विस्तृत पाण्डववृत्त नहीं पाया जावेगा। यद्यपि आचार्य जिनसेनने इसमें पाण्डवोंकी कथाका संक्षेपमेंही कथन किया है। तथापि वह उत्तरपुराणकी अपेक्षा कुछ अधिक विस्तृत है । भ. शुभचन्द्रने हरिवंशपुराणोक्त कथा तथा शब्द.१ देखिये पां. पु. २५-१८७. २ ह. पु. ६६, ५२-५३.
३ उत्तरपुराणमें पाण्डवोंका वृत्तान्त बहुत संक्षेपसे पाया जाता है । यह सूचना वहां स्वयं गुणभद्राचार्यने भी की है । यथाअत्र पाण्डुतनूजानां प्रपञ्चोऽल्पः प्रभाष्यते । ग्रन्थविस्तरभीरूणामायुर्मेधानुरोधतः ॥ उ. पु. ७२-१९७
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