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________________ प्रथमं पर्व १३ बाल्ये रतिपतिः क्षिप्तः क्षिप्रं क्षेमंकरेण मेोः । त्वया लोकितलोकेन विपुलाचलपालिना ॥ ११४ बाल्यक्रीडाविधौ देव नागीभूतात्सुपर्वणः । त्वं निर्जित्य जिता । तिवर त्वं समुपाश्रितः ।। ११५ बालखेलासमारूढं नभःस्था वीक्ष्य योगिनः । द्वापराकरनाशेन सन्मति त्वां च तुष्टुवुः ॥ ११६ शंकरस्त्वां समावीक्ष्य योगस्थं योगिनं जगौ । कृतोपसर्गो निश्चाल्यं महावीर इति स्फुटम् ॥ ११७ महाज्ञान वर्धमानो भवान्मतः । स्तुत्वेति तं नरेड् भक्त्योपाविशन्नरसंसदि । ११८ तावता भगवान्वीरो व्याजहार परां गिरम् । ताल्वोष्ठकण्ठचलनामुक्तामक्षरवर्जिताम् ॥ ११९ राजन् धर्मे मतिं धत्स्व धर्मो द्वेधा दयामयः । अनगारसहा गारभेदेन भेदमाश्रितः ॥ १२० नैर्ग्रन्थ्यमृषिसग्रन्थ्यं नैर्ग्रन्थ्यं परमं तपः । नैर्ग्रन्थ्यं परमं ध्यानं नैर्ग्रन्थ्यं ध्येयमेव च ॥ १२१ नैर्ग्रन्थ्यं परमं ज्ञानं नैर्ग्रन्ध्यं परमो गुणः । नैर्ग्रन्थ्यं प्रथमं प्रोक्तं ज्ञेयं सन्मुनिगोचरम् ॥ १२२ दर्शनसे आकाशगामी जाननेवाले, रसरहित होकर रसको जाननेवाले, विद्वानोंसे स्तुत, रसके ज्ञाता, सर्वज्ञ तथा त्रिलोकके पति हैं । मैं आपकी स्तुति करता हूं ॥ ११३॥ हे प्रभो ! जगत् का कल्याण करनेवाले आपने बाल्यकाल ही में कामका शीघ्र ही नाश किया है । विपुलाचल को सुशोभित करके आपने लोकालोक को जाना है ॥ ११४ ॥ हे प्रभो ! आपने बालकालकी क्रीडाके समय सर्पाकार धारण करनेवाले संगम नामक देवको जीत लिया था । घातिकर्मशत्रु को जीतने वाले हे जिनेश ! उससमय उस देवने आपको 'वीर' कहकर आपका आश्रय ग्रहण किया था ॥ ११५ ॥ बाल्यावस्थामें खेलने में तत्पर आपके संजय और विजय नामके मुनिराजोंका तत्त्वविषयक संशय नष्ट हुआ । उस समय उन्होंने सन्मति नाम रखकर आपकी स्तुति की थी । ॥ ११६ ॥ हे प्रभो ! ध्यानमें स्थिर रहने वाले आप योगी को देखकर भव नामके ग्यारहवे रुद्रने घोर उपसर्ग किया। फिर भी आपकी निश्चलतामें कुछभी अन्तर नहीं पडा, तब उसने 'महावीर' नाम रखकर आपकी स्तुति की । हे स्वामिन् ! आपका ज्ञान वृद्धिंगत होनेसे आप 'वर्धमान' नामसे प्रख्यात हुए हैं । इस प्रकार भक्तिपूर्वक प्रभुकी स्तुति करके श्रेणिकराजा मनुष्यों की सभा में बैठ गया ॥ ११७-१८ ॥ उस समय वीर जिनेश्वरने तालु, ओठ तथा कंठकी चंचलतासे मुक्त और अक्षररहित दिव्यध्वनिसे. श्रेणिकको धर्मोपदेश दिया ॥ ११९ ॥ हे राजन् ! तू जिनधर्म धारण कर । वह दयामय है । उसके अनगारधर्म और सागारधर्म इसतरह दो भेद हैं। निर्ग्रथपना ऋषियों से पाला जाता है (संपूर्ण बाह्याभ्यंतर परिग्रहों का जो त्याग है उसे नैर्ग्रन्थ्य कहते हैं) यह निर्ग्रन्थताही श्रेष्ठ तप है। यह निर्ग्रन्थताही उत्तम शुक्लध्यान है और यही आत्माको मुक्तिप्राप्तिके लिये चिन्तन योग्य ध्येय है । पूर्ण निर्ग्रन्थताही केवलज्ञान है । निर्ग्रन्थता मुनिका उत्कृष्ट गुण है । आगममें इसका प्रथमवर्णन किया है, तथा मुनि इसको धारण करते हैं ||१२० - २२॥ ' गृहस्थधर्म शील, तप, दान और शुभभावनारूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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