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________________ प्रथमं पर्व जिनों द्वादश वर्षाणि तपस्तप्त्वा दुरुत्तरम् । प्रपेदे जृम्भिकाग्रामं जृम्भाजृम्भणवर्जितः ॥९४ ऋजुकूलासरित्तीरे अजुकूले किलाकुले। शालैः शालढुमाकीर्णे शिलापट्टे जिनोऽविशत् ।।९५ वैशाखदशमीवस्त्रेऽपराह्ने षष्ठसंश्रितः । हस्ताश्रिते सिते पक्षे क्षपकश्रेणिमाश्रितः ॥९६ विघातिघातिकर्माणि घातयित्वा धनानि सः । प्रपेदे केवलं बोधं बोधिताखिलविष्टपम् ॥९७ भगवानथ संप्राप दिव्यं वैभारभूधरम् । तत्र शोभासमाकीर्णः समवसृतिशोभितः ॥९८ छत्राशोकमहाघोषसिंहासनसमाश्रितः । चामरैः पुष्पवृष्ट्या च भामण्डलदिवाकरैः ।।९९ दुन्दुभीनां सहस्रेण रेजे रञ्जितशासनः । गौतमादिगणाधीशैः सुरानीतैः स सेवितः ॥१०० अथास्ति मगधो देशो मागधैर्गीतसद्गुणः। मागधैर्देववृन्दैश्च सेव्यः स्खलॊकवत्सदा ॥१०१ राजगृहपुरं तत्र राजते स्वःपुरोपमम् । राजद्राजेन्द्रसद्गहशोभाभाभारभूषणम् ॥१०२ श्रेणिको भूपतिस्तत्र शुभश्रेणिगुणाकरः। महामनाश्च सदृष्टिः प्रतापपरमेश्वरः ॥१०३ चेलनाचित्तचौरेण तेन तत्र स्थितं जिनम् । ज्ञात्वा जग्मे यथापूर्व भरतेन सुचेतसा ।।१०४ तदनंतर उन्होंने समस्त पृथ्वीपर विहार किया ॥ ९१-९३ ॥ आलस्यकी वृद्धिसे रहित अर्थात् मुनिव्रत पालने में अत्यंत तत्पर वीरप्रभुने बारह वर्षतक घोर तप किया । तदनंतर वे भिका ग्रामको आये । शालवृक्षोंसे व्याप्त और सरलतटयुक्त ऋजुकूलानदीके किनारेपर शालवृक्षोंसे घिरे हुए एक शिलापट्टपर वे प्रभु बैठ गये। हस्तनक्षत्रयुक्त वैशाख शुक्ल दशमांक दिन दोपहरके पश्चात् दो उपवासोंकी प्रतिज्ञा कर वीरप्रभुने क्षपकश्रेणीका आश्रय लिया । आत्माके अनंतज्ञानादि चार गुणोंका घात करनेवाले निबिड चार घातिकर्मोंका ( ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ) नाश करके प्रभुने संपूर्ण जगतको जाननेवाला केवलज्ञान प्राप्त किया ॥९४-९७ ॥ तदनंतर भगवान् दिव्य वैभारपर्वतपर आये। वहां शोभासंपन्न समवसरणसे शोभित प्रभु अतिशय शोभते थे । वे तीन छत्र, अशोकवृक्ष, दिव्यध्वनि, रत्नजडित सिंहासनसे युक्त, चौसठ चामर, भामंडलरूप सूर्यों तथा सहस्रदुंदुभियोंसे शोभायमान हुए । उन प्रभुका शासन सर्व जीवोंको अतिशय प्रिय हुआ। इन्द्रके द्वारा लाये गये गौतमादिकगणधरोंसे प्रभु सेवित थे ॥ ९८-१०० ॥ मागध (गंधर्व) देवोंद्वारा जिसके सद्गुण गाये जाते थे, ऐसा स्वर्गलोकके समान मगधनामका एक देश है । जो सदा स्वर्गलोकके सदृश देवसमूहके द्वारा सेवनीय था। इस मगधदेशमें राजगृह नामका नगर देवोंकी अमरावतीनगरीके समान सुंदर था। शोभायमान राजमहलोंकी अत्यधिक शोभासे वह भूषित था ॥ १०१-१०२ ॥ शुभश्रेणियुक्त गुणोंके धारक महाराज श्रेणिक उस नगरमें राज्य करते थे । वे उदार चित्तवाले, सम्यग्दृष्टि और महान् प्रतापी थे। जैसे पूर्वकालमें शुद्धचित्तके धारक भरतचक्रवर्ती केवलज्ञानी आदिभगवानके पास कैलासपर्वतपर वंदनार्थ गये थे, वैसे ही चलनाका चित्त हरण करनेवाले अर्थात् चेलनाके पति श्रेणिकनरेश महावीरप्रभुका वैभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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