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________________ पञ्चाविसं पर्व ४९७ वाचनाप्रच्छनाम्नायानुप्रेक्षाधर्मदेशनाः । इति तैः पञ्चधा दधे स्वाध्यायो ध्यानसिद्धये ॥ कायादिममतात्यागो व्युत्सर्गस्तु सुनिश्चलः । दधे तैर्निर्जने देशे कायात्मभेदंदर्शिभिः ॥३९ धर्मध्यानं चतुर्धा ते दधुः संसिद्धशासनाः । आज्ञापायविपाकाख्यसंस्थानविचयाख्यया ॥४० शुक्लं शुक्लाभिधं वीराः पृथक्त्वेन वितर्कणाम् । वीचारेण प्रकुर्वन्तो दधुनिं बुधोत्तमाः॥ एवमाभ्यन्तरं द्वेधा दधतः षड्डिधं तपः । कर्माणि शिथिलीचकुर्गरुडाश्च यथोरगान् ॥४२ तपसस्तु प्रभावेन प्रभवन्ति न हृद्वयथाः । तेषां समृद्धयो भेजुः सामीप्यं विविधा अपि ।।४३ मैत्र्यं सर्वेषु सत्त्वेषु दधाना धर्मधारिणः । गुणाधिकेषु जीवेषु प्रमोदं ते दधुर्बुवम् ॥४४ . क्लिष्टजीवेषु कारुण्यं कुर्वन्तः कृपयाङ्किताः । माध्यस्थ्यं विपरीतेषु चक्रिरे ते मुनीश्वराः ॥४५ ............... प्रकारके मुनियोंके भेदसे दस प्रकारका आत्मशुद्धि करनेवाला वैयावृत्त्य तप चारित्रके आचारणमें उद्यत पाण्डव मुनि करने लगे। ध्यानकी सिद्धिके लिये वाचना, प्रच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ऐसा पांच प्रकारका स्वाध्याय तप उन्होंने धारण किया। शरीर और आत्मा इनमें भेद देखनेवाले उन मुनिराजोंने शरीर, कमण्डलु आदिके ऊपरकी ममताका त्याग किया और आत्मामें वे सुनिश्चल रहने लगे। इस प्रकार उन्होंने व्युत्सर्गतप निर्जनवनमें धारण किया ॥ ३५-३९ ॥ जो जिनेश्वरकी आज्ञाको पालते थे ऐसे पाण्डवोंने आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामके चार धर्मध्यानको धारण किया। जीवादितत्त्वोंकी सूक्ष्मता जो जिनेश्वरने कही, वही सत्य है, ऐसी चिन्ता करना, आज्ञाविचय है। संसारकारण ऐसे मिथ्यात्वसे. इन जीवोंका कैसा उद्धार होगा ऐसा विचार करना अपाय विचय है । कर्मकी सत्ता, उदय बंधका विचार करना विपाकविचय है तथा लोकसंस्थानका विचार करना संस्थानविचय है। कषायका उपशम होनेसे अथवा क्षय होनेसे शुक्लध्यान होता है । विद्वदुत्तम और वीर ऐसे पाण्डवोंने पृथक्त्त्वसे वितर्क और वीचार करते हुए शुक्लध्यान किया। पृथक्त्ववितर्क-वीचार नामक पहिला शुक्लध्यान है, उसमें अर्थ परिवर्तन, व्यंजन-शब्दपरिवर्तन, तथा योग, मन, वचन और काययोगका परिवर्तन होता है और श्रुतज्ञान के विषयरूप आत्मादि वस्तुका एकाप्रतासे चिन्तन होता है ॥ ४०-४१ ॥ जैसे गरुड सोको शिथिल करते हैं, वैसे अंतरंग तप और बहिरंग तप धारण करनेवाले पाण्डवोंने कर्म शिथिल किये । तपश्चरणके प्रभावसे उनको हृदय व्यथित करनेवाली कोईभी बाधा नहीं होती थी। तथा विक्रियादिक अनेक ऋद्धियांभी उनके पास आईं अर्थात् उन्हें प्राप्त हो गई ॥ ४२-४३ ॥ [ मैत्र्यादिक भावनाओंसे उपसर्गादि सहन ] संपूर्ण प्राणिमात्रमें मैत्रीभाव धारण करनेवाले यतिधर्मधारी पाण्डवोंने रत्नत्रयसे अपनेसे उत्कृष्ट मुनियोंके विषयमें प्रमोदभावना दृढतया धारण की। किसीको दुःख नहीं हो ऐसी मैत्रीभावना मनमें धारण की। कृपासे युक्त होकर रोगादिकसे पीडित जीवोंपर दया करते हुए उन मुनीश्वरोंने कारुण्यभावना धारण की तथा विपरीत पां. ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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