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________________ पाण्डवाराणम् तत्र चम्पापुरी पुण्या पान्ती पावनमानवान् । प्राकारपरिखावेष्टया विशिष्टा भाति भूतले ।। तत्र कौरववंशीयो मेघवाहनभूपतिः। सोमदेवाभिधस्तत्र वाडवो विपुलो गुणैः ॥७९ श्यामागी सोमिला तस्य तयोरासन्सुतात्रयः। प्रथमः सोमदत्तोऽन्यः सोमिलः सोमभूतिवाक् ॥८० सोमिलायाः शुभी भ्राताग्निभूतिस्तस्य भामिनी। __ अग्मिला च तयोस्तिस्रः पुत्र्यः सोमशुभाननाः ॥८१ धनश्रीश्चैव मित्रश्री गश्रीः श्रीरिवापरा । तास्तिस्रः सोमदत्तायैः प्राप्ताः पाणिग्रहंक्रमात् ।। सोमदेवः कदाचित्तु विरक्तो भवभोगतः । प्रावाजीद्गुरुसांनिध्ये मिथ्यामार्गविमुक्तधीः॥ अयस्ते भ्रातरो भक्ता भव्या भव्यगुणैर्युताः। श्रावकाध्ययनं धीरा ध्यायन्ति स्म सुधर्मिणः सोमिला मलनिर्मुक्ता सम्यक्त्वव्रतधारिणी । दधाना परमं धर्म सिद्धान्तश्रवणोधता ।।८५ सा वधूभ्यः सदादेशं ददाविति महाशया । अहिंसा सत्यमस्तेयं कार्य ब्रह्मत्रतं बुधैः ॥८६ वेष्टित था । इस भूतलमें वह नगरी अपनी विशिष्टतासे शोभती थी ।। ७८ ॥ उस नगरीमें कौरववंशमें जन्मा हुआ मेघवाहन नामक राजा राज्यपालन करता था। उसी नगरमें गुणोंसे विपुल श्रेष्ठ सोमदेव नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी सोमिला नामक तरुण स्त्री थी। इन दोनोंको तीन पुत्र हुए। सोमदत्त पहिला पुत्र, दूसरा सोमिल और तीसरा सोमभूति नामक था। सोमिलाके सुस्वभाववाले भाईका नाम अग्निभूति था और उसकी पत्नीका अग्निला नाम था। इन दोनोंको चंद्रके समान मुखवाली तीन कन्यायें हुई। धनश्री, मित्रश्री और नागश्री ऐसे उनके नाम थे। उनमें नागश्री मानो दूसरी श्रीके तुल्य थी। सोमदत्तादिक तीनों भ्राताओंने विवाहक्रमसे तीनों कन्याओंको प्राप्त किया ॥ ७९-८२ ॥ किसी समय सोमदेव संसारभोगसे विरक्त हुआ। उसकी बुद्धि मिथ्यामार्गसे हट गई और उसने गुरुके सन्निध मुनिदीक्षा धारण की ।। ८३ ॥ वे सोमदत्तादि तीनों भाई जिनभक्त थे. और भव्यगुणोंसे-वात्सल्य, स्थितिकरणादिगुणोंसे युक्त रत्नत्रययोग्य थे। सुधर्मवान् होनेसे वे धीर-विद्वान् श्रावकाध्ययनका अर्थात् श्रावकोंके आचारका चिन्तन, मनन करते थे ॥८४॥ सोमदत्तादिकोंकी माता सोमिला मलरहित थी, निष्कपटी थी। सम्यग्दर्शन और अणुव्रतोंको धारण करती थी। उत्तम धर्मको धारण करनेवाली और सिद्धान्तश्रवणमें तत्पर रहती थी। श्रेष्ठ अभिप्रायवाली वह सोमिला अपनी पुत्रवधुओंको हमेशा श्रेष्ठ-हितकारक उपदेश देती थी। अहिंसा, सत्य भाषण, अचौर्य और ब्रह्मचर्य सुज्ञ स्त्रीपुरुषोंको धारण करना चाहिये । अर्थात् तुम इन व्रतोंका पालन करो। धान्य ऊखलीमें कूटना, चक्कीसे उसे पीसना, अन्न पकाना और जलगालन करनेकी पद्धतिको जान कर वैसा विधिपूर्वक जलगालन करना, पात्रदानादिक देना ऐसी विशेष शिक्षा वह अपनी पुत्रवधुओंको देती थी। धनश्री और मित्रश्री ये दो वधुयें उसके वचनोंमें आनंदसे शीघ्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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