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पाण्डवपुराणम् यद्वीर्य प्रकटीकत्य चर्यते चरणं महत् । वीर्याचारः प्रणीतः स जिनेन्द्रेण सुनेमिना ।।५९ विघात्मकः पुनः प्रोक्तो धर्मः श्रीजिननायकैः । दर्शनज्ञानचारित्रभेदेन भवभेदिना ॥६० शादिदोषनिर्मुक्तमष्टाङ्गपरिपूरितम् । तत्र सम्यक्त्वमाख्यातं तत्वश्रद्धानलक्षणम् ।।६१ संज्ञानं निर्मलं रम्यं जिनोक्तश्रुतसंश्रितम् । शब्दार्थादिप्रभेदेन पूरितं गदितं बुधैः ॥६२ त्रयोदशविषं विद्धि चारित्रं चरणोधतैः। प्रोक्तं पुरातनैः पुंसां सर्वकर्मनिकृन्तनम् ॥६३ अथवा दशधा धर्मो मतः क्षान्त्यादिलक्षणः। आधः क्षान्त्याहयस्तत्र मार्दवो मानमोचनम्।। आर्जवं शाम्बरीत्यागः शौचं लोभविवर्जनम् । सत्यं तु सत्यवादित्वं संयमो जीवरक्षणम् ।। तपस्तु तापनं देहे त्यागो वित्तविवर्जनम् । निर्ममत्वं शरीरादावाकिंचन्यं मतं जिनैः ॥६६ चरणं ब्रह्मणि खस्मिन्ब्रह्मचर्य स्वभावजम् । सर्वसीमन्तिनीसंगत्यागो वा तन्मतं जिनैः ।। अथवा परमो धर्मः स चिदात्मनि या स्थितिः। मोहोद्भतविकल्पौषवर्जिता निर्मलात्मिका ।।
सामर्थ्य प्रगट कर जो महान् मुनियोंका आचार पाला जाता है उसको नेमिजिनेन्द्रने वीर्याचार कहा है । पुनः जिनधर्मके तीन भेद श्रीजिननायकोंने कहे हैं। संसारनाशक धर्मके सम्यग्दर्शन धर्म, सम्यग्ज्ञान धर्म और सम्यक्चारित्र धर्म ऐसे तीन भेद हैं ।। ५३-६०॥ शंका, कांक्षा, विचिकित्सादिक आठ दोषोंसे रहित, निःशंकित, निष्कांक्षित आदि आठ अंगोंसे पूर्ण, जो जीवादि सप्त तत्त्वोंपर श्रद्धान करना उसे सम्यक्त्व अर्थात् सम्यग्दर्शन कहते हैं। जिनेश्वरने कहे हुए आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवायादिक बारह अंगोंका आश्रय करनेवाला रम्य और निर्मल ऐसा जो जिनागमका ज्ञान, जिसके शब्दश्रुत [द्रव्यश्रुत) और भावश्रुत ऐसे दो भेद हैं तथा जिसके पूर्वादि चौदह भेद भी हैं। उसको विद्वान् सम्यग्ज्ञानधर्म कहते हैं। चारित्र पालनेमें उद्यत रहनेवाले प्राचीन महर्षियोंने पुरुषोंके सर्व ज्ञानावरणादि आठ कर्मोको तोडनेवाला तेरह प्रकारका चारित्र कहा है, वह सम्यक् चारित्र-धर्म है ॥ ६१-६३ ॥ अथवा उत्तम क्षमादि लक्षण जिसके हैं ऐसे धर्मके दशभेद माने हैं । पहिला क्षान्तिनामका धर्म है अर्थात् क्रोधके कारण उपस्थित होनेपर सहनशील रहना क्षमाधर्म है। अभिमानका त्याग करना मार्दवधर्म है। कपट-त्यागको आर्जवधर्म कहते हैं। लोभको छोडना शौचधर्म है । सत्य बोलना सत्यधर्म और जीवोंका रक्षण संयम है। देहको अनशनादिकोंसे तपाना तपोधर्म है और सत्पात्रमें द्रव्य अर्पण करना अर्थात् चार प्रकारके आहार, शास्त्र, औषध,
और वसतिका अर्पण करना त्याग-धर्म है। शरीरादिकोंमें ममतारहित होना जिनेश्वरने आकिश्चन्यधर्म कहा है। ब्रह्ममें आत्मस्वरूपमें तत्पर होना यह स्वभावसे उत्पन्न हुआ ब्रह्मचर्य नामक धर्म है तथा संपूर्ण स्त्रीमात्रके संगका त्याग करना भी ब्रह्मचर्य धर्म है ऐसा जिनेश्वरने माना है ॥ ६४-६७ ॥ अथवा चैतन्यमय आत्मामें जो स्थिर रहना उसेभी उत्तमधर्म कहते हैं। वह आत्मस्थिति, मोहसे उत्पन्न हुए रागद्वेष-मोहादि विकल्पोंसे रहित, मलरहित-स्वच्छ होती है । मैं चैतन्यस्वरूप, केवल
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