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एकवितं पर्व
१५७ तत्र सा तेन संदृष्टा बाष्पौषप्तसनाखा । तमजम्बूनदाभासा मुक्तकेशी कशावरी॥१११ कपोलन्यस्तसद्धस्ता प्रतिमेव क्रियातिगा । रतिर्वा कामनिर्मुक्ता शची वाशक्रवर्जिता ॥११२
श्रियं निर्जित्य रूपेण स्थिता किंवा स्थिरासना।।
इति संचिन्त्य दुश्चिन्तो नारद त्यचिन्तयत् ।। ११३ सतीयं संकटं नीता मया मानेन पापिनाः । ततः स केशवं प्राप्यावादीद्रणसम्बतम् ॥११४ विकटं कटकं विष्णो किमर्थ मेलितं त्वया । द्रौपदी धातकीखण्डे कङ्कायां सा तु विद्यते ॥ पवनाभो नृपस्तत्र वैरिवंशविनाशकः । आराध्य निर्जरं जहे तां सीतां वा दशाननः॥११६ यत्र यातुं न शक्नोति नरः कोऽपि महाबली। अतोत्र तिष्ठ निर्द्वन्द्वमिदं कार्य सुदुष्करम् ।। तमिशम्य स्वभूस्तत्र प्रभुः संमुच्य तदलम् । रथेनैकेन संप्राप नगरं हास्तिनं पुरम् ॥११८ संमुखं पाण्डवा विष्णुं गत्वा नत्वा न्यवेदयन् । द्रौपदीहतिवृत्तान्तं विश्वलोकभयप्रदम् ॥ ते तत्र मन्त्रणं कृत्वा मत्वा दुर्लध्यमर्णवम् । लवणाम्बुधिसत्तीरं प्रापुः पापपरासखाः तत्र त्रिकोपवासेनासाधयत्स्वस्तिकं सुरम् । लवणाम्बुधिसनाथं प्रस्पष्टो विष्टरश्रवा॥१२१
आई-गीला हुआ था। तपे हुए सोनेकासा उसका शरीरवर्ण था। उसके मस्तकके बाल विखरे हुए थे। उसका पेट कृश हुआ था अर्थात् उसका शरीर कृश हुआ था। उसने अपने हाथपर अपना गाल रक्खा था। स्थिर प्रतिमाके-समान वह दीखती थी। मदनवियुक्त रतिके समान, वा इंद्ररहित शची- इंद्राणीके समान, अथवा सौंदर्यके द्वारा लक्ष्मीको जीतकर स्थिर आसनसे मानो बैठी हुई है ऐसा विचार कर दुःखदायक चिन्तासे घिरा हुआ नारद ऐसा विचार करने लगा ॥१०६११३ ।। 'हाय ! मुझ पापीने मानसे इस सतीको संकटमें डाला है।' तदनन्तर वह शीघ्र रणोबत कृष्णके पास आकर बोलने लगा। हे केशव, यह भयंकर सैन्य किस लिये इकट्ठा किया है ! द्रौपदी तो धातकीखंडमें अमरकका नामक नगरीमें मैंने देखी है। वहां पद्मनाभ नामक राजा, जो कि शत्रुओंका वंश नष्ट करनेवाला है, रावणने जैसा सीताका हरण किया, वैसे उसने देवकी आराधना कर द्रौपदीका हरण किया है। वहां कोई-महाबलवान् मनुष्य भी जानेमें समर्थ नहीं है इस लिये तुम यहां निश्चित होकर बैठे हैं। यह कार्य बडा कठिन है ॥ ११४-११७ ॥ नारदसे द्रौपदीकी वार्ता सुनकर कृष्णराजाने अपना चतुरंग सैन्य वहां ही छोड दिया और एक रथसे वह हास्तिनापुरको आगया। विष्णुके पास जाकर और नमस्कार कर सब दुनियाको भीति उत्पन्न करनेवाली द्रौपदी हरणकी वार्ता पाण्डवोंने विष्णुसे कही ।। ११८-११९ ॥ पापरहित पाण्डव और श्रीकृष्णने वहां विचार किया और समुद्र अलंघनीय है ऐसा समझकर लवणसमुद्रके सुंदर किनारेपर आए। वहां विष्णुने तीन उपवास करके लवणसमुद्रके खामी श्रीखस्तिक भामक देवको स्पष्टरीतिसे सिद्ध किया। उस देवने वेगवान् छह रथ उनको दिये। वे रथ पानीमें चलनेवाले थे। उनके द्वारा वे क्षणमात्रमें
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