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एकविंशं पर्व
शीलरत्नमहो नृणां भूषणं शीलमुत्तमम् । शीलाद्दासत्वमायान्ति सुरासुरनरेश्वराः ॥ ८८ शीलात्सुमुज्ज्वलः कायः शीलेन विपुलं कुलम् । शीलेन जायते नाकः शीलं चक्रिपदप्रदम् ।। शीलेन शोभते सद्यः सर्वसीमन्तिनीगणः । शीलेन विपुलो वह्निः सीतावच्च जलायते ॥९० सुलोचना यतो याता शीलतः सुरनिम्नगाम् । समुत्तीर्य तथान्यासां शीलान्भीरं स्थलायते ॥ शीलतो जलधिर्नृणां क्षणतो गोष्पदायते । श्रीपालकामिनीवद्वै शीलं सर्वसुखाकरम्॥ ९२ शीयुक्त मृतः प्राणी स सुखी स्याद्भवे भवे । न जहामि वरं शीलं मृत्यावहमुपस्थिते ।। समुच्छवास्य विकल्प्येति जजल्प द्रुपदात्मजा । शृणु त्वं प्रकटाः पश्च पाण्डवा भ्रातरो भृशम्।। प्रचण्डाखण्डकोदण्डा जिताखण्डलमण्डलाः । कम्पन्ते यत्प्रभावेन निर्जराः सज्जमानसाः॥९५ संचरन्तो रणे नूनमनिवार्या विपक्षकैः । ये मन्ति घनघातेन वैरिणो विगतालसाः ॥ ९६ पुनर्यद्भ्रातरौ कृष्णबलौ त्रिखण्डनायकौ । सुरासुरनरैः पूज्यौ तौ स्तो भारतभूषणौ ॥९७ कीचकेन समीहा मे कृता शीलविलुप्तये । हतः स भ्रातृभिः सत्रं शतसंख्यैः सुपाण्डवैः ॥ ९८
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किया “ मनुष्यप्राणियोंको शील रत्न है और वह उनका उत्तम अलंकार है। सुर, असुर और मनुष्योंके खामी इन्द्र, चक्रवर्ती आदि शीलके प्रभावसे दास होते हैं । शीलके पालनेसे तेजखी शरीरकी प्राप्ति होती है और शीलसे कुलकी विपुलता होती है अर्थात् उच्चकुलमें जन्म होता है । शील वर्ग मिलता है और शील चक्रवर्तिपदका दाता है । शीलसे तत्काल सर्व नारीगणको शोभा उत्पन्न होती है | अतिशय तीव्र विशाल अग्नि शीलके प्रभाव से सीताके समान पानी हो जाता है । इस शीलके प्रभाव से जयकुमारकी रानी सुलोचना गंगा नदीको तीरकर संकटमुक्त हो गई । वैसे अन्य शीलवती स्त्रियोंको भी शीलके प्रभावसे पानी स्थलके समान हुआ है । शीलके प्रभाव से मनुष्यों को समुद्र क्षणही गायके खुरके समान हो जाता है । श्रीपालराजा और उसकी स्त्री मदनसुंदरी रानी भी इसके उदाहरण है । शीलसे सर्व सुख मिलते हैं । शीलयुक्त प्राणी मरनेपर प्रत्येक भवमें सुखी ही होता है। मृत्यु उपस्थित होनेपरभी मैं शीलका त्याग न करूंगी ॥ ८७-९३ ॥ तदनंतर दीर्घ श्वास छोडकर और मनमें कुछ विचार कर द्रौपदी पद्मनाभको इस प्रकार बोलने लगी :- " हे राजा, सुन युधिष्ठिरादिक पांच पाण्डव अन्योन्यके भाई हैं । तथा उनकी सर्वत्र प्रसिद्धि है । वे प्रचंड और अखंड कोदंडके - धनुष्यके धारक हैं । और इंद्रोंको भी वे जितनेवाले हैं। इनके प्रभावसे स्थिरचित्तवालीं देवतायें डरती हैं। जब वे युद्ध में संचार करते हैं तब उन्हें निश्चयसे शत्रु जीतने में असमर्थ होते हैं। शत्रु उनका निवारण नहीं कर सकते हैं । आलस्य छोडकर वे प्रचण्ड आघातसे शत्रुओंको नष्ट करते हैं । पुनः त्रिखण्डके स्वामी श्रीकृष्ण और बलदेव ये पाण्डवोंके भाई हैं। ये श्रीकृष्ण और बलदेव सुर, असुर और मनुष्योंसे पूजे जाते हैं और वे इस समय जंबूद्वीप के भरतक्षेत्रके अलंकार हैं। मेरा शील नष्ट करनेके लिये कीचकने इच्छा की थी, परंतु सुपाण्डवोंने
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