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________________ एकविंशं पर्व ४५३ अयं तु निश्चितं स्वप्नो न भ्रान्तिर्विद्यते मम । इति स्ववक्रमाच्छाद्य सुप्ता सा मीलितक्षणा ॥ भूपस्तन्मानसं ज्ञात्वा जगाद मदनाहतः । कमलाक्षि निरीक्षस्त्र नायं स्वप्नः प्रहर्षिणि ॥६७ यं निद्रेति सा मत्वा प्रेक्षमाणा दिशो दश । ददर्श किङ्किणीयुक्तं व्योमयानं मनोहरम् ॥ परस्त्रीलम्पटो लोभी कपटी विकटः पटुः । पद्मनाभो जजल्पेति भामिनि शृणु मद्वचः। ६९ द्वीपोऽयं धातकीखण्डश्चतुर्लक्षसुयोजनैः । विस्तीर्णो वेष्टितो विष्वक्कालोदकपयोधिना ॥७० विद्धीमां देवकङ्काख्यां पुरीं ख्यातां वरां शुभैः । स्वार्णैर्गृहैः समुद्दीप्तां मणिमुक्ताफलाचिताम् तत्पतिः पद्मनाभाख्यो वैरिवारविनाशकः । अहं पराक्रमाक्रान्तदिक्चक्रः शक्रसंनिभः ॥७२ भ भामिनि भवत्यर्थे भयत्रस्तेन चेतसा । मया कष्टेन वेगेन सुरः संसाधितो हठात् ॥७३ त्वां विना भोजनं भव्यं भव्ये मे रोचते न हि । विरहेण तवात्यर्थे मृतावस्थामितोऽस्म्यहम् ।। सुरेण तेन वेगेन त्वमानाय्य सुखं स्थितः । प्रसन्ना भव भो भीरु भज भोगान्मया समम् ॥ देशं कोशं पुरं रत्नं चामरातपवारणे । तुरंगं दन्तिनं हर्म्यं गृहाण त्वं तवेप्सितम् ॥७६ विरहानिं परं लग्नं विध्यापय विचक्षणे । भोगोदकेन वेगेन मम मर्मणि दाहकम् ॥ ७७ समझ लिया । वह मदनपीडित होकर उसे कहने लगा, कि " हे कमलनयने, हे हर्षयुक्ते देख, यह स्वप्न नहीं है"। ऐसा उसका भाषण सुनकर यह निद्रा नहीं है अर्थात् स्वप्न नहीं है ऐसा उसने भी जान लिया और दश दिशाओंको वह देखने लगी। उसने अपने आगे छोटी घंटिकाओं से युक्त मनोहर आकाशविमान देखा || ६७-६८ ॥ [ पद्मनाभकी द्रौपदीसे प्रार्थना ] परत्रीलंपट, लोभी, कपटी, भयंकर और चतुर पद्मनाम - राजा कहने लगा, कि “ हे सुंदरी मेरा वचन सुन " अर्थात् मैं यहांकी सब परिस्थिति तुझे कहता हूं। यह धातकीखंड नामक द्वीप चार लक्ष योजन विस्तीर्ण है और कालोदधि समुद्रने इसे चारों तरफ से वेष्टित किया है । हे भामिनि, इस उत्तम नगरीको अमरकंका नामकी प्रसिद्ध नगरी समझो। यह शुभ - सुंदर सुवर्णखचित घरोंसे चमकती है, तथा मणि - मौक्तिकोंसे समृद्ध है । इस नगरीका राजा मैं हूं, मेरा नाम पद्मनाभ है और मैं वैरिसमूहका नाश करनेवाला, पराक्रमसे दशदिशाओं को व्याप्त करनेवाला और इंद्रके समान वैभववाला हूं। हे सुंदरी, तेरे लिये - तेरी प्राप्ति के लिये भयभीत मनसे मैंने कष्टसे और हठसे देवकी आराधनाकर उसे साधा है। हे भव्ये, तेरे विना मधुर अन्नभी मुझे नहीं रुचता है । तेरे तीव्र विरहसे मेरी मृतके तुल्य अवस्था हुई है ।। ६९-७४ ॥ साध देवके द्वारा मैं तुझे यहां लाया हूं जिससे अब मैं सुखसे रहूंगा । हे भीरु, तू मुझपर प्रसन्न हो और मेरे साथ भोगोंको भोग । देश, कोश, नगर, रत्न, चामर, छत्र, घोडा, हाथी, महल आदिक तुझे जो पदार्थ रुचते हैं वे ग्रहण कर । हे चतुरे, मेरे शरीरमें जो विरहानि लग गई है उसे तू शति कर | यह विरहामि मेरे ममको दग्ध कर रही है उसे तू भोगरूपी जलके वेगसे शांत कर। इस 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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