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एकोनविंशं पर्व
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कौरवीयं बलं तावन्मुञ्चति स्म शिखण्डिनि । शरांस्ते तस्य लग्नन्ति न भीता इव संगरे | धृष्टद्युम्नविनिर्मुक्ताः शरा वज्ज्रमुखास्तदा । वज्राणीव सुलझन्ति नगे विपक्षवक्षसि । २४१ ये गाङ्गेयविनिर्मुक्ताः पुष्पायन्ते शिखण्डिनः । शरा लग्नाः सुखाय स्युः पुण्यात्सर्व सुखाय वै ।। यं यं चापं समादत्ते गाङ्गेयो गुणसंगतम् । तं तं छिनत्ति बाणेन धृष्टद्युम्नः समुद्धतः ॥ २४३ पुण्यक्षये च क्षीयन्ते समक्षं सर्वजन्मिनः । धनानीव महायूंषि पुत्रमित्रसुखानि च ॥२४४ द्रौपदस्तु सुबाणेन गाङ्गेयकाचं हठात् । बिभेद वनयूथं वा प्रावृण्मेघः सुधारया ॥ २४५ पातयामास भूपीठे सारथिं च रथध्वजम् । गाङ्गेयस्य हयौ हर्षाच्छरैः श्रीद्रुपदात्मजः ।। पितामहः सुनिष्कम्पो रथातीतो दधाव च । कृपाणं स्वकरे कृत्वा कृन्तितुं द्रुपदात्मजम् ॥ कृपाणो द्रौपदेनैव तस्य च्छिन्नो महाशरैः । हृदयं च क्षुरप्रेण हतं हन्त हतात्मना ॥ २४८ पितामहः पपाताशु पृथिव्यां पावनस्तदा । गतं जीवितमालोक्य स संन्यासं समग्रहीत् ॥ सदधे परमं धैर्य धर्मध्यानपरायणः । सुपरीक्ष्यामनुप्रेक्षां ररक्ष निजचेतसि ॥ २५०
दित किया जाता है वैसे हजारों बाणोंसे भीष्माचार्यको आच्छादित किया । उस समय कौरवसैन्यने शिखण्डी के ऊपर बाण छोडे परंतु वे उसको स्पर्श नहीं करते थे मानो वे युद्धमें उससे डरते थे । धृष्टद्युम्नके द्वारा छोडे गये वज्रमुखी बाण पर्वत के समान शत्रुओं के वक्षःस्थलपर वज्रके समान लगते थे । जो बाण भीष्माचार्यके द्वारा छोडे जाते थे वे शिखण्डीको लगकर पुष्पके समान सुखदायक हो जाते थे। योग्य ही है, कि पुण्यसे सर्व बातें सुखके लिये होती हैं
॥ २३८ - २४२ ॥
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[ भीष्माचार्यका संन्यासमरण ] गांगेय - भीष्माचार्य डोरीसे सहित जो जो धनुष्य हाथमें लेते थे उसे उद्धत धृष्टद्युम्न अपने बाणसे तोडता था । पुण्यक्षय होनेपर देखते देखते सर्व प्राणियों के धनोंके समान दीर्घ आयुष्य, पुत्र, मित्र और सुख नष्ट हो जाते हैं । वर्षाकाल का मेव अपनी जलधारासे वनवृक्षको जैसे भेद डालता है वैसे शिखंडीने अपने उत्तम वाणसे भीष्माचार्यका कवच बलात् तोड डाला । शिखंडीने सारथि, रथ और उसका ध्वज और आचार्य के घोडे हर्षसे बाणोंसे गिरा दिये । तो भी निर्भय पितामह हाथमें तरवार लेकर द्रुपदात्मज - शिखण्डीको तोडनेके लिये दौडने लगे शिखंडीने भी महासे उनकी तरवार तोड डाली और बाणके द्वारा उनका हृदय उस दुष्टने विद्ध किया | उस समय पवित्र पितामह पृथ्वीपर गिर गये और अपना जीवित गया ऐसा समझकर उन्होंने संन्यास धारण किया ।। २४३ - २४९ ॥ धर्मध्यानमें तत्पर होकर भीष्माचार्यने उत्तम धैर्य धारण किया । तथा अनुप्रेक्षाओंकी उत्तम परीक्षा कर अपने मनमें उनका रक्षण किया । अर्थात् अनित्यादि धनुप्रेक्षाओंसे धनादिक पदार्थोंका नश्वरपना जानकर उनसे वे मोहरहित होगये ॥ २५० ॥
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पृथ्वीतल पर गिराया ।
रथरहित होकर और
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