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अष्टादशं पर्व
३७९ स तद्रथं समावीक्ष्याकस्मात्कश्मलतां गतः । कातरत्वं जगामाशु कम्पमानः प्रमुक्तधीः॥८८ चातुरङ्गबलं तावदायासीत्कौरवं क्षणात् । विशिखासंख्यपातेन वैराटं जर्जरं व्यधात् ।।८९ धनंजय इवोद्भूतः स धनंजयपाण्डवः । सुबाणज्जालयारण्यं ज्वालयामास कौरवम् ॥९० स गाण्डीवकरोऽवोचद्यद्यस्ति भवतामिह । भटः कोऽप्यवतात्तर्हि दुर्योधनं ममाग्रतः ॥९१ क्रुद्धः कर्णस्तदोत्तस्थे वीतहोत्र इव ज्वलन् । अर्जुनं प्रति वेगेन धावमानो महामनाः॥९२ कर्णार्जुनौ तदा लग्नौ छादयन्तौ महाशरैः । दलन्तौ धरणीं पादैर्हसन्तौ हास्यवाक्यतः ॥९३ परस्परं महावाणैच्छिन्दन्तौ छिदुराशरान् । शीघ्रं जेनीयमानौ तौ विघ्नौधैरिव चासिभिः ॥ हेषारवं प्रकुर्वाणौ हयाविव महोद्धतौ । चूर्णयन्तौ चरन्तौ तौ दलन्तौ दन्तिनाविव ॥९५ हिंसन्तौ सिंहवद्धीरौ पूरयन्तौ च पुष्करम् । विशिखैः संख्यया मुक्तैर्दुरुक्तैश्च परस्परम् ।।९६
तुझे सत्वर यमका मार्ग देखनेके लिये भेज देता हूं" ॥ ८५-८७ ॥ दुर्योधन अर्जुनका रथ देखकर अकस्मात् कांतिहीन हो गया-काला पड़ गया। उसका शरीर कँपने लगा, उसको बुद्धिने छोड दिया। वह भयभीत हो गया ॥ ८८ ॥ उतनेमें कौरवोंका चतुरंग सैन्य तत्काल आया और उसने असंख्य बाणोंकी वृष्टि करके विराटराजाके सैन्यको जर्जर किया। उस समय धनंजय पाण्डव-अर्जुन धनंजय अर्थात् अग्निके समान प्रगट हुआ। उसने बाणरूपी ज्वालासे कौरवरूपी अरण्यको प्रदीप्त किया। जिसके हाथमें गाण्डीव धनुष्य है, ऐसा अर्जुन कहने लगा, कि यदि आपके पास कोई बलवान् योद्धा होगा तो वह मेरे सामने दुर्योधनकी रक्षा करे ॥ ८९-९१ ॥
[अर्जुनके साथ कर्ण और दुःशासनका युद्ध ] अर्जुनके प्रति वेगसे दौडनेवाला महामना कर्ण अग्निके समान प्रज्वलित होता हुआ युद्धके लिये उद्युक्त हुआ। अपने पावोंसे पृथ्वीको दलित करते हुए और हास्यवाक्य बोल कर हंसते हुए कर्ण और अर्जुन महाबाणोंसे अन्योन्यको आच्छादित कर युद्धमें सँलग्न हुए। वे महाबाणोंसे अन्योन्यके बाणोंको बीचहीमें काटने लगे। विनोंके समान तरवारियोंसे वे अन्योन्यके ऊपर आघात करने लगे। अतिशय उद्धत घोडोंके समान वे हेषारव करते थे अर्थात् घोडोंके समान शब्द करते थे। अन्योन्यके ऊपर आक्रमण करनेवाले दो हाथियों के समान वे अन्योन्यका चूर्ण करने लगे और दलन करने लगे। सिंहके समान धीर वे दोनों अन्योन्यपर आघात करने लगे तथा असंख्यबाणोंसे आकाशको वे आच्छादित करने लगे, दुःशब्दोंके द्वारा अन्योन्यको ताडने लगे ॥ ९२-९६ ॥
अर्जुनने मेघोंके समान बाणोंसे आकाश व्याप्त किया और वायुके द्वारा जैसे कपास भागता है वैसे शत्रुका सैन्य भग्न कर दिया। उत्तम धनुष्य को धारण करनेवाले अर्जुनने कर्णके धनुष्यकी डोरी तोड डाली और सारथि के साथ उसका चंचल रथभी छिन्न कर दिया। उस समय द्वादशात्मसुत-सूर्यराजाका पुत्र कर्ण रथरहित होकर जमीनपर खड़ा हो गया । इतने में शत्रसमूहको आच्छादित करता
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