SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 416
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६१ सिञ्चयित्वाखिलान्भूपान्धर्मश्चामृतबिन्दुना । सुसुमानिव वेगेन समुत्थापयति स्म सः ॥२२० तदा धर्मसतोआक्षीकिरातं को भवानिति । उपकारकरोऽस्माकं शुभकर्म यथा नृणाम् ।। मिल्लः श्रुत्वा वचोऽवादीद्रो धर्मात्मज धर्मधीः । आराधितस्त्वया धमों विशुद्धो विबुधोत्तमः।। तत्प्रभावादहं बुद्ध्वावधिबोधाद्धोत्तम । सौधर्माधिपतेः प्रीत उपसर्गो महात्मनाम् ।।२२३ पाण्डवानां समागत्य कृत्या किल्विषसंनिभाम् । अवारयं पुनः सेत्वा व्यवक्षत्कनकध्वजम्।। इति वृत्तान्तमावेद्य धर्मः पार्थाय द्रौपदीम् । दत्त्वा स्वसदनं यातो नत्वा तत्पादपङ्कजम्।।२२५ कौन्तेयाः क्रमतःप्रापुः पुरं मेघदलाभिधम् । सिंहाख्यस्तत्प्रभुः ख्यातः काश्चनाभास्य कामिनी तयोः सौरूप्यसंपन्ना सुता कनकमेखला । शचीव सुचिरं चित्ते जाता प्रीति वितन्वती॥ भीमो भोजनसिद्धयर्थ पुरं प्राप्तः समाप्तवान् । राज्ञा दत्ता परां कन्या ज्येष्ठभ्रातृनियोगतः॥ तत्र स्थित्वा कियत्कालं देशं कौशलसंज्ञकम् । विलोक्य निर्गताः प्रापुः क्रमाद्रामगिरि गिरिम्॥ है। इस लिये हमें तू अपना वृत्त कह दे" ॥ २१९-२२१ ॥ भिल्लने धर्मराजका वचन सुनकर इस प्रकार कहा " हे धर्मात्मज, तेरी बुद्धि धर्माचरणमें स्वभावसेही है, तूने निर्मल धर्मकी आराधना की है और तू विद्वानोंमें श्रेष्ठ है, उस धर्मके प्रभावसे हे विद्वच्छ्रेष्ठ, सौधर्माधिपतिके प्रीतिपात्र, मेंने अवधिज्ञानसे महात्मा पाण्डवोंके ऊपर उपसर्गका प्रसंग आया ऐसा जानकर मैं यहां आकर पापके समान कृत्याका निवारण किया और कनकध्वजराजाके पास जाकर उसने उसे जला दिया। इस प्रकार वृत्तान्त कहकर धर्मदेवने अर्जुनको द्रौपदी अर्पण की और उसके चरणकमलोंको वन्दन कर वह अपने स्थानको चला गया॥ २२२-२२५॥ अनंतर पाण्डव वहाँसे भेघदल नामक पुरको गये। उसके स्वामीका नाम 'सिंहराज' था और पत्नी का नाम 'कांचना' था। उन दोनोंको स्वरूपसुंदर कन्या थी। उसका नाम 'कनक-मेखला था। उसने शचीके समान मातापिताके मनमें चिरकालसे प्रेम उत्पन्न किया था। भीम भोजनप्राप्तिके लिये नगरमें आये थे। तब राजाने उन्हें अपनी कन्या उसके ज्येष्ठ भ्राता धर्मराजके आदेशसे दी। राजा सिंहके यहां कुछ दिन ठहर कर ‘कौशल' नामक देशकी शोभा देखकर वहांसे निकले हुए पाण्डव क्रमसे ' रामगिरि ' नामक पर्वतके पास आये ॥ २२६-२२९ ॥ [पाण्डव विराटराजाके पास अज्ञातवेषसे रहे ] क्रमसे शुभ पृथ्वीतलपर भ्रमण करनेवाले पाण्डव विराट देशके सुंदर और श्रेष्ठ विराटनगरको आये। वहां भिन्न अभिप्रायवाले और स्वतंत्र ऐसे पाण्डवोंने इस प्रकार विचार किया। महान् तेजखी हम यहां रहते हुए बारा वर्षोंकी अवधि पूर्ण हुई है। इतने कालतक वनमें घूमनेवाले भिल्लोंके समान हम रहे हैं। हमारा इतना काल मानसम्मान, धर्म और सुखसे रहित बीत गया। अब एक वर्ष बचा है। सुन्दर, स्वच्छ मनवाले और गुप्तरीतीसे रहनेवाले हम अपना चातुर्य लोकसमूहको दिखाते हुए सिर्फ एक वर्षतक रहेंगे।" पां. १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy