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पाण्डवपुराणम् वयं निर्धाटितास्तूर्ण हठेन कुण्ठमानसाः । निर्लोठिताः समायाता भवत्पार्धे भयाकुलाः ॥९३ मघवा तत्समाकर्ण्य क्रुद्धः संनद्धमानसः । ऐरावतं गजं सजीचकार स रणोद्यतम् ॥९४ सुरानाज्ञापयामास रणभेरीसमागतान् । वज्रपाणिः करे वज्रं कृत्वा गन्तुमनास्तदा ॥९५ तदा व्योमरवो जज्ञे सुरेशेति च संवदन् । नाकं हित्वा क गम्येत सुरसंघातसंयुतम् ॥९६ तत्र तं विनसंघातं विधातुं न क्षमो भवेत् । यत्र वंशे स विख्यातो बभूव भुवनेश्वरः ॥९७ नेमिर्नारायणश्चापि पाण्डवोऽपि महान्पुमान् । जडत्वं त्वं परित्यज्य स्वस्थो भव निजे पदे । निशम्येति स्थिरं तस्थौ सुरराट् सुरशंसितः । अर्जुनोऽपि विसाशु विघ्नं विपिनसंभवम् ।। हस्तिनागपुरं प्रेम्णा समियाय समुत्सुकः । केशवः स्वपुरं प्राप प्रमोदभरभूषितः ॥१०० सुभद्रया परान्भोगान्भुञ्जानो वानरध्वजः । अभिमन्युसुतं लेभे लसल्लक्षणलक्षितम् ॥१०१ एकदा धार्तराष्ट्रेण दुर्योधनमहीभुजा । कौन्तेयाः कपटेनैवाकारिताः खलबुद्धिना ॥१०२ बहुस्नेहाविलं वाक्यं गान्धारेयो जगौ तदा । युधिष्ठिरं स्थिरं बुद्धया भीमाद्यैः समलंकृतम् ।। कुरु क्रीडा सुकौन्तेय नानाक्षक्षेपणक्षमाम् । धर्मपुत्रेण स द्यूतमारेभे कौरवाग्रणीः ॥१०४
तिरस्कृत किये जानेसे भयभीत होकर आपके पास आये हैं ॥ ९१-९३ ॥ इन्द्रने उस वार्ताको सुनकर क्रोधसे अर्जुनके ऊपर आक्रमण करनेका मनमें निश्चय किया। चलनेके लिये उद्यत हुए ऐरावत हाथीको उसने सज्ज किया। रणभेरीको सुनकर आये हुए देवोंको उसने लढनेके लिये आज्ञा दी और स्वयं जानेकी इच्छासे उसने अपने हाथमें वज्रायुध धारण किया। उस समय आकाशध्वनि हुई, “हे सुरेश, देवसमूहसे युक्त स्वर्गको छोडकर आप कहां जा रहे हैं, जिस वंशमें विख्यात त्रिलोकनाथ नेमीश्वर उत्पन्न हुए हैं, और जिस वंशमें श्रीकृष्ण उत्पन्न हुआ है, जिसमें महापुरुष अर्जुन उत्पन्न हुआ है उस वंशमें आप विघ्न उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। इस लिये जडपना छोडकर अपने स्थानमें स्वर्गहीमें स्वस्थतासे रहें " ऐसा बोलनेवाली आकाशवाणी प्रगट हुई। उसे सुनकर देवप्रशंसित इन्द्र अपने स्थानमें स्थिर बैठ गया। अर्जुन भी जंगलमें उत्पन्न हुए विघ्नको शीघ्र हटाकर उत्सुक होकर प्रेमसे हस्तिनापुर आया । इधर केशवने भी आनंदभरसे भूषित होकर द्वारिका-नगरीमें प्रवेश किया ॥ ९४-१०० ॥ सुभद्राके साथ उत्तम भोगोंको भोगनेवाले अर्जुनको सुंदर लक्षणोंसे युक्त अभिमन्यु नामक पुत्र हुआ ॥ १०१ । किसी समय दुष्ट बुद्धि धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन राजाने युधिष्ठिरादिक कुन्तीपुत्रोंको कपटसे बुलाया। गांधारीके पुत्र दुर्योधनने भीमादिकोंसे भूषित और बुद्धिसे स्थिर ऐसे युधिष्ठिरके साथ अतिशय स्नेहपूर्वक भाषण किया। “हे कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर, नाना प्रकारके पासे जिसमें फेंके जाते हैं ऐसा द्यूत तुम हमारे साथ खेलो" तब धर्मपुत्रके साथ वह कौरवोंका अगुआ दुर्योधन यूत खेलने लगा ॥ १०२-१०४ ॥ सौ कौरवपुत्र दो पासोंसे खेलते थे । मनमें कपट धारण कर वे धैर्यसे युधिष्ठिरके साथ खेलने लगे।
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