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पाण्डवपुराणम् अथैकदा शिवादेवी सुषुप्ता शयनोदरे । निशात्यये ददर्शेति स्वप्नान्षोडश संमितान् ॥१०० ऐन्द्र गजेन्द्रमैक्षिष्ट समदं मन्द्रबृंहितम् । गवेन्द्रं सुसुधापिण्डमिव पाण्डुरमुद्धरम् ॥१०१.. इन्दुच्छायं मृगेन्द्रं सोच्छलन्तं रक्तकन्धरम् । पनांस्नाप्यां सुरेभाभ्यां कुम्भाभ्यां पद्मसंस्थिताम् दामनी कुसुमामोदालमनानामधुव्रते । ताराधीशं स्ववक्त्राब्जमिव तारासमन्वितम् ॥१०३ भास्वन्तं धूतसद्ध्वान्तं स्वर्णकुम्भमिवोद्धुरम् । शातकुम्भमयो कुम्भौ स्तनकुम्भाविवोन्नतौ ॥ नेत्रायति झषौ पद्म दर्शयन्ताविवात्मनः। पद्माकरं सुपयोत्थकिञ्जल्कपरिपिञ्जरम् ॥१०५ . लोलकल्लोललीलाढ्यं जलधि मन्द्रनिस्वनम् । सिंहासनं समुत्तुङ्गमेरुशृङ्गमिवोन्नतम् ॥१०६ । पुत्रसूतिगृहाभासं विमानं विपुलश्रियम् । भुजंगभुवनं भूमिमुद्भिद्य निर्गतं शुभम् ॥१०७ निधानमिव रत्नानां राशिं शुभभराश्रितम् । धनंजय प्रतापं वा स्वमूनोधूमवर्जितम् ॥१०८ गजाकारेण वक्त्राब्जे विशन्तं तं ददर्श सा | स्वमान्ते स्वमतो बुद्ध्वा विनिद्रनयनाम्बुजा॥ ध्वनद्भिस्तूर्यसंघातैः प्रत्यबुद्ध ततश्च सा । शृण्वती मङ्गलोद्गीति देवस्त्रीणां सुमङ्गला ॥११० मातस्तमो निशाजातमुद्भिद्योदेति भानुमान् । त्वन्मुखेन यथा याति तामसं मानसे स्थितम्।।
लगे ॥ ९५-९९ ॥ किसी समय शय्यापर सोयी हुई शिवादेवीने रात्रिसमाप्तिके समय आगे लिखे हुए सोलह संख्याप्रमाण स्वप्न देखे । शिवादेवीने मदजलसे युक्त गंभीर गर्जनाकरनेवाला इंद्रका ऐरावत हाथी तथा उत्तम अमृतपिण्डके समान शुभ्र और बलशाली बैल, चन्द्रके समान कान्तिवाला, लाल कण्ठसे युक्त, कूदनेवाला सिंह, देवोंके दो हाथी अपने शुण्डामें दो कलश धारण कर जिसका अभिषेक कर रहे हैं ऐसी कमलपर बैठी हुई लक्ष्मी, पुष्पोंके सुगंधसे आकर जिनके ऊपर 8ौरे बैठे हैं ऐसी दो पुष्पमालायें, अपने मुखकमलके समान सुंदर ताराओंसे घिरे हुए ताराधीश चन्द्र, जिसने विद्यमान अंधकारको नष्ट किया है तथा जो बडे सुवर्णकुंभके समान दीखता है ऐसा सूर्य, स्तनकुम्भके समान ऊंचे दो सुवर्णकुम्भ, कमलके समान अपने नेत्रकी दीर्घता मानो दिखा रहे हैं ऐसे दो मत्स्य, उत्तम कमलोसे निकले हुए परागसे पीत दीखनेवाला, कमलोंसे भरा हुआ सरोवर, चंचल लहरियोंसे भरा हुआ, गंभीर गर्जना करनेवाला समुद्र, उंचे मेरुशिखरतुल्य ऊंचा सिंहासन, विपुल शोभाधारक पुत्रकी प्रसूतिका मानो घर है ऐसा विमान, भूमिको फोडकर बाहर निकला हुआ धरणेन्द्रका शुभ घर, पुण्यसमूहसे आश्रय करनेवाला मानो निधि है ऐसी रत्नोंकी राशि, अपने पुत्रका मानो प्रताप ऐसा धूमरहित अग्नि, इन सोलह स्वप्नोंको जिनमाताने-शिवादेवीने देखा। स्वप्नके अन्तमें हाथीके आकारसे मुखकमलमें प्रवेश करनेवाले उस भावी तीर्थकरको उसने देखा ॥१०१-१०९॥ निद्रारहित नेत्रकमलोंको धारण करनेवाली सुमंगला वह शिवादेवी देवस्त्रियोंके मंगल गीत सुनती हुई बजनेवाले वाद्यसमूहोंसे जागृत हुई ॥११०॥ हे देवी, तेरे मुखसे जैसे मनमें रहा हुआ अंधकार-अज्ञान नष्ट होता है वैसा रात्रीमें उत्पन्न होनेवाला अंधकार नष्ट कर यह सूर्य उदित
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