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नवमं पर्व
१७९ सधर्मिभ्यो ददद्वित्तं चतुर्धा दानतत्परः । संतोष्य सर्वतः सर्वानभवद्भवभेदकः ॥१२० समाहूय सुतान्पश्च धर्मपुत्रादिकांस्तदा । दत्तराज्यभराक्रान्तान्धृतराष्ट्राय सोऽर्पयत् ॥१२१ पालनीयाः सुता मेऽद्य त्वत्पुत्रसुधिया त्वया । युधिष्ठिरादयो नूनं कुरुवंशं सुरक्षता ॥१२२ कुन्त्याः सोध्दाच्छुभां शिक्षा पुत्रपालनहेतवे । निर्विण्णो भवभोगेषु परलोकहितोद्यतः॥१२३ युधिष्ठिरादिखननां रुदतामतिमोहिनाम् । स्वराज्यस्थितये शिक्षा ददौ पाण्डुरखण्डवाक् ।। कुरुजान् गोत्रिणो वंश्यान्क्षान्त्वा पाण्डुः क्षमापयन् । निर्ययौ गेहतो हित्वा गेहस्नेहपरिग्रहान् ॥ इयाय जाहवीतीरमजिमब्रह्मवेदकः । तत्र स प्रासुके देशे संन्यस्यास्थास्थिरव्रतः ॥१२६ यावज्जीवं कृताहारशरीरत्यागसंगतः । वीरशय्यां समारुक्षदमूढो गुरुसाक्षिकम् ॥१२७ आरुह्माराधनानावं भवाब्धि तर्तुमिच्छुकः । सर्वसन्वेषु समतां भावयन्मावतत्परः ॥१२८ . मैत्री सर्वत्र जीवेषु प्रमोद गुणिषु व्यधात् । माध्यस्थ्यं विपरीतेषु कृपां क्लिष्टेषु भूपतिः ॥
बुलाकर और उनको राज्यभार सौंपकर उनको धृतराष्ट्रके अधीन किया। हे धृतराष्ट्र, कुरुवंशकी उत्तम रक्षा करनेवाला तू आज अपने पुत्रके समान समझकर युधिष्ठिरादिक मेरे पुत्रोंका पालन कर ॥ ११८-१२१ ॥ पुत्रपालनके लिये कुन्तीको उसने शुभ उपदेश दिया और वह पारलौकिक हितमें उधुक्त होकर संसार और भोगोंसे विरक्त हुआ। अतिशय मोहवश होकर रोनेवाले युधिष्ठिरादिक पुत्रोंको स्वराज्यकी स्थिरताके लिये अखंडिताज्ञा जिसकी है ऐसे पाण्डुराजाने उपदेश दिया ॥ १२२-१२३ ॥ कुरुवंशमें उत्पन्न हुए गोत्री और वंशजोंको क्षमा करते हुए उसने क्षमा याचना की। घर, स्नेह और परिग्रहोंको छोडकर वह पाण्डुराजा घरसे निकला। निर्मल ब्रह्म जाननेवाला वह गंगाके किनारेपर गया। वहां एक प्रासुक स्थानपर दृढव्रतोंका धारक वह राजा संन्यास धारणकर स्थिर बैठा ॥ १२४-१२६ ॥
[पाण्डुराजाका समाधिमरण ] विद्वान् पाण्डुराजाने आजन्म शरीर और आहारका त्याग किया और गुरुसाक्षीसे वीरशय्यापर आरोहण किया। दर्शनाराधना, ज्ञानाराधना, चारित्राराधना और तपआराधना इन चार आराधनारूपी नौकापर आरोहण कर संसारसमुद्रको पार करनेकी इच्छा रखनेवाले पाण्डुराजाने अपने आत्मामें तत्पर रहकर संपूण प्राणियोंमें समताभाव रखा अर्थात् किसीभी प्राणिमें उसको न राग था न द्वेष था। ऐसी मनोवृत्तिसे वह कालयापन करने लगा ॥१२७-१२८॥ उसने संपूर्ण जीवोंपर मैत्रीभाव धारण किया अर्थात् किसी भी प्राणिको दुःखोत्पत्ति न हो ऐसी अभिलाषा उसके मनमें उत्पन्न हुई। गणियोंको देखकर उसके मनमें प्रमोदआनंद होता था। जो विपरीत विचारके-मिथ्यादृष्टि थे उनके विषयमें मध्यस्थभाव उसने धारण किया। तथा उसने दुःखी जीवोंके विषयमें दयाभाव मनमें रखा ॥१२९॥ उस वीरने प्रायोपगमन धारण किया अर्थात् अपने शरीरकी सेवा न उसने की न किसीको करने दी। इसतरह उसकी शरीरके
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