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पाण्डवपुराणम् हनिष्यामि कदा शत्रु मोहेनेति महीयसा । चिन्तन्ति दुर्मतिं नीता विकल्पवातवश्चिताः ।। एणः क्षीणः क्षणेनायं स्वैणीप्राणप्रियो मया। हतात्मना हतो हन्त करिष्ये किमहं शुभम् ॥ चिन्तयनिति दुश्चिन्तश्चिन्त्यचेतनमुक्तधीः। यावदास्ते समासीनो दिशां पश्यन्विशांपतिः॥ तावता सुव्रतो योगी व्रतवातविराजितः । इद्धावधिपरिज्ञातनानालोकस्थितिः स्थिरः ।।७० गुप्तिगुप्तः सुगुप्तात्मा समितिस्थितिसंगतिः । षट्सुजीवनिकायानां पालकः परमोदयः ॥७१ चिदात्मचिन्तनासक्तो विमुक्तो भवभोगतः । अनुप्रेक्षाक्षणासक्तो निर्विपक्षः समक्षधीः ॥७२ अक्षुणलक्षणैर्लक्ष्यः क्षपणाक्षीणविग्रहः । निर्जिताक्षः क्षमाकांक्षी सुपक्षोऽक्षयसौख्यभाक् ॥ दुर्लक्ष्यः स्त्रीकटाक्षेण क्षान्त्या क्षोणी क्षिपन्नपि । मोक्षाक्षयसुक्षेत्रस्य कांक्षकः क्षिप्तकल्मषः॥ क्षणे क्षणे क्षयं कुर्वन्कर्मणां क्षपिताक्षकः । दक्षः क्षेमंकरोऽक्षोभ्याक्षीणो रक्षाक्षराढ्यवाक् ॥ अक्षेमक्षेपको मछु साक्षाद्भिक्षुः क्षितीशनुत् । क्षप्यपक्षक्षयोद्युक्तो दीक्षितः क्षणलक्षणः ।।७६
मैं शत्रुको कब नष्ट कर सकूँगा ॥६५-६७॥ हरिणीको प्राणके समान प्रिय हरिण दुष्ट बुद्धिसे मैंने मारा
और वह एक क्षणमें क्षीण होकर मर गया । अरेरे ! मैं अब कौनसा शुभ कार्य करूं, जिससे मेरा यह पाप नष्ट होगा ! इसप्रकार पाण्डुराजाने विचार किया। यह कार्य मैंने दुःखदायक किया ऐसा वह विचारने लगा। तथा थोडी देरतक चिन्ता करने योग्य ज्ञानसे रहित हुआ । उसकी अवस्था कुछ कालतक ऐसी रही । तदनंतर वह इधरउधर दिशाओंको देखने लगा ॥६८-६९॥
[सुव्रत मुनिका उपदेश ] पाण्डुराजाको सुव्रत नामक योगी दृष्टिगोचर हुए। वे अहिं. सादि पांच महाव्रतोंके धारक थे। उत्कृष्ट अवधिज्ञानसे लोगोंके अनेक व्यवहारोंको वे जानते थे। और अपने व्रतोंमें वे स्थिर रहते थे। तीन गुप्तियोंका उन्होंने रक्षण किया था। वे उत्तमरीतिसे आत्माका रक्षण करते थे अर्थात् संयमी थे। पांच समितियोंका पालन करते थे। पांच स्थावर और त्रस जीव ऐसे जीवसमूहोंके वे पालक थे। अर्थात् दयाभावसे उनका रक्षण करते थे। चैतन्यरूप आत्मस्वरूपके चिन्तनमें तत्पर होकर संसारभोगोंसे विरक्त रहते थे। अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनमें तत्पर थे। वे शत्रुरहित और प्रत्यक्षज्ञानी थे। उत्तम सामुद्रिक चिह्नोंसे वे महापुरुष दीखते थे। उपवासोंसे उनका देह कृश हुआ था। वे जितेन्द्रिय, क्षमाधारी, अनेकान्त पक्षके धारक, और अक्षयसौख्यके अनुभवी थे। वे कभी स्त्रियोंके कटाक्षोंसे विद्ध न होते थे। क्षमाके द्वारा पृथ्वीको तिरस्कृत करते हुए भी मोक्षके अक्षय क्षेत्रकी इच्छा रखनेवाले, पापविनाशक, और प्रत्येक क्षणमें कर्मोका क्षय करनेवाले थे। इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, अपने ध्यानादिकार्योंमें तत्पर, प्राणियोंका हित करनेवाले, कोपादिकोंसे अक्षुब्ध, क्षमादि गुणोंसे पुष्ट, प्राणिरक्षणका उपदेश देनेवाले, लोगोंको अहितसे तत्काल दूर रखनेवाले थे। उनकी मुनि और राजा स्तुति करते थे। क्षपण करने योग्य ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मोंका नाश करनेमें वे उद्युक्त रहते थे। वे दीक्षित और उत्साहके लक्षणोंसे
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