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तृतीयं पर्व
अन्योन्यं च तयोर्भूपाः कोपकम्पितविग्रहाः । अभिपेतुर्जयो योद्धुं संनद्धो रोषमानसः । । ११६ मित्रनागरो ज्ञात्वा विष्टराकम्पतो जयम् । नागपाशं शरं चार्धचन्द्रं दत्त्वा गतोऽप्यसैौ ॥। ११७ कौरवो बाणमादाय वज्रकाण्डे न्ययोजयत् । रथानथाष्टचन्द्राणां ससारथीनभस्मयत् ॥ ११८ छिन्नदन्तकरो हस्तीव यमो वा हृतायुधः । भग्नमानः कुमारोऽस्थाद्विक्कष्टं चेष्टितं विधेः ।। ११९ विधिज्ञो विधिवत्पुत्रं चक्रिणः समजीग्रहत् । तस्याप्यासीदवस्थेयमुन्मार्गः कं न पीडयेत् ॥ १२० पतद्भास्करसंकाशमर्ककीर्ति गतायुधम् । स्वरथे स्थापयित्वा स आरुरोह द्विपं स्वयम् ।। १२१ विपक्षखचरान्भूपान्नागपाशेन पाशितान् । नियन्त्र्य निर्जितारातिः संन्यस्थात्सिंहविक्रमः॥ १२२ इति प्राप्त तस्मिन्वृष्टिः सुमनसां दिवः । पपात सुरसंघेभ्यो जयारावविमिश्रिता ॥१२३ रणावनिं स आलोक्य कारयामास सर्वतः । मृतानां प्रेतसंस्कारं जीवतां जीवनक्रियाम् ॥ १२४ जयोऽप्यकम्पनेनामा प्राविशत्सर्वसंपदाम् । पुरीं पुरजनाकीर्णा लसत्केतनशोभिताम् ॥ १२५ रक्षितान्धृतभूपालान्कुमारं च नियोगिभिः । आश्वास्याश्वासकुशलैर्यथास्थानमवापयत् ।। १२६
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परिस्थिति देखकर रुष्टचित्त होकर जयकुमार युद्ध के लिये तयार हुआ ॥ ११६ ॥ जयकुमारका मित्र नागकुमारदेव भी आसनकंपसे वास्तविक परिस्थिति जानकर वहां आया और जयकुमारको नागपाश और अर्द्धचन्द्र बाण देकर चला गया ॥ ११७ ॥ त्राण लेकर उसे उस समय कौरववंशी जयकुमारने वज्रकाण्ड धनुष्यपर जोड दिया । और अष्टचन्द्र विद्यावरोंके रथोंको सारथियोंके साथ भस्म कर दिया । युद्धचतुर जयकुमारने चक्रवर्तीके पुत्रको पकडा । अहह ! चक्रवर्तीके पुत्रकी भी ऐसी दुर्दशा हो गई । दुर्मार्ग किसको दुःख नहीं देता जिसके दांत और शुण्डा टूट गये हैं ऐसे हाथ के समान अथवा जिसका शस्त्र नष्ट हुआ है ऐसे यमके समान, कुमारका अभिमान नष्ट हुआ । अरेरे ! कर्मकी दुष्ट प्रवृत्तिको धिःकार हो । ११८-१२० ।। अस्तको जाते हुए सूर्यके समान दीखनेवाला, नष्ट हुआ है आयुध जिसका ऐसे चक्रवर्तिपुत्र अर्ककीर्ति को अपने रधमें लेकर स्वयं जयकुमार हाथीपर आरूढ हो गया ॥ १२१ ॥ जयकुमारने शत्रुपक्ष के विद्याधर राजाओं को नागपाशमें नियंत्रित कर दिया । इस प्रकार शत्रुओं को जीतनेवाला सिंहके समान पराक्रमी जयकुमार स्वस्थ हुआ || १२२ ॥ इसप्रकार जिसको जयप्राप्ति हुई है ऐसे जयकुमार के ऊपर स्वर्गसे देवोंने जयजयकार करके पुष्पवृष्टि की ॥ १२३ ॥ तदनंतर राजाने चारों तरफ से को देखकर जो मरे हुए थे उनका प्रेतसंस्कार करवाया और जीवित थे उनके लिये जीवनोपाय बतलाया ॥ १२४ ॥ तदनन्तर जयकुमार अकम्पन राजाके साथ सुंदर ध्वजोंसे सुशोभित, नागरिक लोगों भरी हुई, सर्व संपन्न नगरीमें-- वाराणसी में प्रविष्ट हुआ ॥ १२५ ॥ कैद किये गये राजा और अर्ककीर्तिको चतुर सरदारोंसे आश्वासन देकर उनको योग्य स्थानपर भेज दिया ॥ १२६ ॥ संपूर्ण विघ्नोंका नाश जिनेश्वरसे होता है इसलिये उनकी वंदना की और पूजा, स्तुति
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