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________________ परिशिष्ट १८ / जैन पुराणकोश श्रोता के आठ गुण १. शुश्रुषा २. श्रवण ३. ग्रहण ५. स्मृति ६. ऊह ७. अपोह सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव के १००८ नामों की सूची ( महापुराण पर्व २५ श्लोक १०० से २१७ के अन्तर्गत ) ४. धारण ८. निर्णीति ० सं० नाम श्लोक सं० मपु० १.१४६ १९२ १५७, १८९ २०३ १८८ १७२, १८६ १७६ १७१ १५० १. अक्षय २. अक्षय्य ३. अक्षर ४. अक्षोभ्य ५. अखिलज्योति ६. अगण्य ७. अगति ८. अगम्यात्मा ९. अगाह्य १०. अगोचर ११. अग्रज १२. अग्रणी १३. अग्रय १४. अग्राह्य १५. अग्रिम १६. अचल १७. अचलस्थिति १८. अचिन्त्य १९. अचिन्त्यद्धि २०. अचिन्त्यवैभव २१. अचिन्त्यात्मा २२. अच्छेद्य २३. अच्युत २४. अज २५. अजन्मा संसारी जीव की विशेषतायें १. परतन्त्रता-कर्मबन्धन युक्त होना। मपु० ४२.८३ । २. चंचलता-सुख दुःख जनित वेदना से उत्पन्न व्याकुलता । मपु० ४२.८३-८४ ३. भयपना-देव आदि पर्यायों में प्राप्त ऋद्धियों का क्षय होना। मपु० ४२.८४ ४. बाध्यता-ताड़ना एवं अनिष्ट वचनों की प्राप्ति । मपु० ४२.८५ ५. परिक्षयत्व-इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान, दर्शन, वीर्य सुख का क्षय होना । मपु० ४२.८५-८७ ६. रजस्वलत्व-कर्म-कलंकित होना । मपु० ४२.८७ ७. छेवत्व-शरीर के खण्ड-खण्ड हो सकना । मपु० ४२.८८ ८. भेद्यत्व-प्रहार आदि से शरीर का भेदा जा सकना। मपु० ४२.८९ ९. मृत्यु-प्राणी का परित्याग । मपु० ४२.८९ १०. प्रमेयत्व-चेतन का परिमित शरीर में रहना। मपु. ४२.९० ११. गर्भवास-माता के गर्भ में रहना । मपु० ४२.९० १२. विलीनता-एक शरीर से दूसरे शरीर में संक्रमण करना। मपु० ४२.९१ १३. क्षभितत्व-क्रोध आदि से आक्रान्त चित्त में क्षोभ उत्पन्न होना । मपु० ४२.९२ १४. विविषयोग-नाना योनियों में भ्रमना । मपु० ४२.९२ १५. संसारावास-चारों गतियों में परिवर्तन करते रहना। मपु० ४२.९३ १६. असिवता-प्रत्येक जन्म में ज्ञानादि गुणों का अन्य-अन्य रूप होते रहना। मपु० ४२.९३ १५० १२९ १०४ ११३ १८६ १५० २१५ . श्लोक सं० ऋ० सं० नाम ११४ ३९. अधिगुरु १७३ ४०. अधिदेवता १०१ ४१. अधिप ११४ ४२. अधिष्ठान २०९ ४३. अध्यात्मगम्य १३७ ४४. अध्वर ४५. अध्वर्यु ४६. अनर्घ ४७. अनणु ४८. अनत्यय ४९. अनन्त ११५ ५०. अनन्तग ५१. अनन्तजित् ५२. अनन्तदीप्ति १५० ५३. अनन्तधामर्षि १२८ ५४. अनन्तद्धि ११४ ५५. अनन्तशक्ति १६४ ५६. अनन्तात्मा १५० ५७. अनन्तौज १४० ५८. अनलप्रभ १०४ ५९. अनश्वर २१५ ६०. अनादिनिधन १०९ ६१. अनामय १०६ ६२. अनाश्वान् १०६ ६३. अनिद्रालु १०९ ६४. अनिन्द्रिय १०९ ६५. अनिन्द्य १७१ ६६. अनीदृक् १६९ ६७. अनीश्वर १२२ ६८. अनुत्तर १७६ ६९. अन्तकृत् २०७ ७०. अपारधी १४८ ७१. अपुनर्भव १४८ ७२. अप्रतात्मा १४८ ७३. अप्रतिघं १४० ७४. अप्रतिष्ठ १२६ ७५. अप्रमेयात्मा १७१ ७६, अबन्धन . १९८ १०१ १४७ ११४, २१७ १७१ २०७ १४८ २६. अजर ~ ~ ~ ~ सम्यक्त्व के भेद और अंग सम्यक्त्व के भेद - १. आज्ञा-मम्यक्त्व २. मार्ग-सम्यक्त्व ३. उपदेश-सम्यक्त्व ४. सूत्र-सम्यक्त्व ५. बीज-सम्यक्त्व ६. संक्षेप-सम्यक्त्व ७. विस्तार-सम्यक्त्व ८. अर्थोत्पन्न-सम्यक्त्व ९. अवगाढ-सम्यक्त्व १०. परमावगाढ-सम्यक्त्व वीवच० १९.१४१-१४२ सम्यक्त्व के आठ अंग १, निःशंकित - २. निःकांक्षित . ३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढत्व ५. उपगूहन ६. स्थितिकरण . ७. धर्म-वात्सल्य ८.प्रभावना, "वीवच० ६.६३-७० २७. अजयं २८. अजात २९. अजित ३०. अणिष्ठ ३१. अणोरणीयान् ३२. अतन्द्रालु ३३. अतीन्द्र ३४. अतीन्द्रिय ३५. अतीन्द्रियार्थदृक ३६. अतुल ३७. अधर्मधक् ३८. अधिक ~ ~ M r १६३ १०४ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002719
Book TitleJain Purano ka Sanskrutik Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain, Darbarilal Kothiya, Kasturchand Suman
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1993
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Culture
File Size4 MB
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