________________
५३
पंचम सर्ग: त्यक्तान्येन पुरस्तस्य तेन तस्थे महात्मना। अभियूथाधिपं यूथं विमुच्य 'हरिणा यथा ॥५४॥ मध्येरणमयाकरणं धनुराकृष्य वेगतः । छावयामासतुर्धारी तावन्योन्यं पतत्रिभिः ।।५५।। चिरात्स रन्ध्रमासाद्य सेनान्यो धनुषो गुणम् । लुलावैकेन वाणेन तमप्यन्येन पातयन् ॥५६।। ततो महाबल: क्रुद्धः प्रोत्साह्य खचरेश्वरान् । उपेक्षध्वं किमित्युक्त्वा योद्धपोरा प्रचक्रमे ॥५७।। निवर्तस्व किमन्यत्र व्रजस्यभिमुखो भव । अयं न भवसोत्युच्चब्रुवन् विव्याध तं शरैः ॥५८।। अन्तरव स तद्बाणान् बारपश्चिच्छेद वेगतः । विशन्महानदग्राहान्ग्राहैरिव महार्णवः ॥५६॥ जेतु धनुविदा "धुयं सायकैस्तमपारयन् । पाणिमुक्त रिपुः कोपाच्चकादिभिरताडयत् ॥६॥ तानथादाय वेगेन तस्मिन्मुञ्चति सायकान् । नोरन्ध्र परितः शत्रु पवियद्वियविवाभवत् ॥६॥ प्रजय्यं 'मूगतमत्वा तं जिगीषुः स्वविद्यया । अनेकं वपुरादाय द्यां व्यगाहत खेचरः ॥६२।।
झण्ड के स्वामी के आगे खड़ा हो जाता है ।।५४।। तदनन्तर रण के बीच वेग से कानों तक धनुष खींच कर दोनों धीरवीरों ने वारणों के द्वारा परस्पर-एक दूसरे को आच्छादित कर दिया ५५ चिरकाल बाद छिद्र पाकर अपराजित ने एक वारण के द्वारा सेनापति के धनुष की डोरी काट डाली और दूसरे वारण से सेनापति को भी गिरा दिया ॥५६।।
तदनन्तर क्रोध से भरा हुआ महाबल नामका बीर विद्याधर राजाओं को प्रोत्साहित कर तथा 'इस तरह उपेक्षा क्यों करते हो ?' यह कहकर युद्ध करने के लिये तत्पर हुआ ॥५७।। लौटो, अन्यत्र क्यों जाते हो ? सन्मुख स्थित होओ, यह तुम अब न रहोगे-अब जीवित न बचोगे, इस प्रकार उच्च स्वर से कहते हुए अपराजित ने उसे वाणों से विद्ध कर दिया ।।५८।। अपराजित उसके वाणों को अपने वारणों के द्वारा वेग से बीच में ही उस प्रकार छेद डालता था जिसप्रकार कि महासागर प्रवेश करने वाले महानद के ग्राहों को अपने ग्राहों के द्वारा बीच में ही छेद डालता है ।।५।। जब शव धनुष विद्या के जानने वालों में श्रेष्ठ अपराजित को वारणों के द्वारा जीतने के लिये समर्थ नहीं हा तब वह क्रोध वश हाथ से छोड़े हुए चक्र आदि के द्वारा उसे ताड़ित करने लगा ॥६०।।
तदनन्तर उन सबको लेकर जब अपराजित वेग से वारण छोड़ रहा था तब शत्रु के चारों ओर का आकाश छिद्र रहित हो गया था और ऐसा जान पड़ता था मानों कहीं चला जा रहा हो। भावार्थ-उस ओर से जो चक्र आदि शस्त्र अपराजित पर छोड़े जा रहे थे उन्हें वह झेलता जाता था
और वेग से शत्रु पर ऐसी घनघोर वारण वर्षा कर रहा था कि आकाश उनसे भर गया था और उससे ऐसा जान पड़ता था मानों कहीं भागा जा रहा हो ॥६१।। जीतने के इच्छुक विद्याधर ने जब अपराजित को भूमि पर स्थित मनुष्यों के द्वारा अजय्य समझा-जीता नहीं जा सकता ऐसा विचार किया तब वह अनेक शरीर बनाकर आकाश में प्रविष्ट हुआ ।।६२।। तत्पश्चात् समस्त विद्याएँ अपना
१ सिंहेन २ गणः ३ मौर्वीम् ४ अग्रेसरम् ५ गगनं वियदेमिव विगच्छदिव बभूव ६ भूचारिभिः
७आकाशम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org